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प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ
सौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर रतिषेणा और रति नामा दो देवियां इसका रूप दर्शन करने स्वर्ग से आयीं थीं। तैल-मर्दन कराती देख वे संतुष्ट हुईं, किंतु जब इस सुसज्ज अवस्था में देखा तो उन्हें प्रसन्नता नहीं हुई, वे इसके नश्वर रूप को धिक्कारती हुई वहाँ से चली गई। राजा-रानी दोनों ने संयम ग्रहण कर लिया। 196
2.6.29 प्रीतिमती
पुष्कार्ध द्वीप के पश्चिम विदेह में गंधिलादेश के विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी के अरिन्दमपुर के राजा अरिंजय की अजितसेना रानी से यह रूप गुण सम्पन्न कन्या पैदा हुई। युवती अवस्था में उसने संकल्प किया कि जो मुझे 'गतियुद्ध ( दौड़) में जीतेगा, उसीका मैं वरण करूंगी। उत्तरश्रेणी के राजा सूर्यप्रभ एवं रानी धारिणी के पुत्र चिंतागति, मनोगति और चपलगति ने उसके साथ स्पर्धाकी, उसमें चिंतागति को विजय प्राप्त हुई, किंतु उसने वरमाला पहनने से इंकार कर दिया, उसने कहा कि तूंने पहले उन्हें भी प्राप्त करने की इच्छा से गतियुद्ध किया अतः तूं मेरे लिये त्याज्य है। प्रीतिमती ने कहा- जिसने मुझे जीता है उसी के गले में माला डालूंगी।' इस विवाद में प्रीतिमती संसार से विरक्त हो विवृता नामकी आर्यिका के पास दीक्षित हो गई। प्रीतिमती के इस साहस को देखकर तीनों भ्राताओं ने भी दमवर मुनि के पास दीक्षा ग्रहण की। उत्कृष्ट संयम का पालन कर ये तीनों चौथे माहेन्द्र स्वर्ग में सामानिक देव बनें। आगे जाकर इससे सातवें भव में चिंतागति का जीव बावीसवाँ तीर्थंकर नेमिनाथ एवं प्रीतिमती राजीमती के रूप में पैदा हुई। 197
2.6.30 प्रीतिकरी
गांधार देश में विंध्यपुर के निवासी वणिक् सुदत्त की भार्या । इसी नगरी के राजकुमार नलिनकेतु ने कामासक्त होकर इसका अपहरण किया था, जिससे उसका पति विरक्त होकर दीक्षित हो गया, इसने भी आर्यिका सुव्रता से दीक्षा ले ली। मरकर यह ऐशान स्वर्ग में देवी हुई।"
2.6.31 मदनावती
पूर्वभव में शीतलनाथ भगवान के समय " सुगंधदशमीव्रत" किया, अपना पूर्वभव सुनकर दीक्षा ली 16वें स्वर्ग में देव बनी, फिर मोक्ष में गई । 199
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2.6.32 मदनमंजूषा
रत्नशेखर की पत्नी, पूर्वभव में "पुष्पांजलीव्रत" किया, अपना पूर्वभव सुनकर दीक्षा ली 16वें स्वर्ग में देव बनी | 200
196. मपु. 63/249-53, 288-95 दृ. जै. पु. को 197. मपु. 70/30-37 दृ. जै. पु. को पृ. 240 198. मपु. 63/99-100 दृ. जै. पु. को पृ. 244 199. जैन व्रत कथा संग्रह, पृ. 77
200. जैन व्रत कथा संग्रह, पृ. 130
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पृ. 243
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