SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 533
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्वेताम्बर - परम्परा की श्रमणियाँ 92. श्री निर्मलप्रभाश्रीजी 93. श्री विश्वलताश्रीजी 94. श्री भावपूर्णाश्रीजी 95. श्री धैर्यप्रभाश्रीजी 96. श्री यशप्रभाश्रीजी 97. श्री दिव्यप्रज्ञाश्रीजी 1978 1997 1994 2004 2006 1996 कोठरा भूज नवावास नलीआ नलीआ नलीआ Jain Education International 2022 2022 वै. कृ. 2 2022 2023 2023 2023 I 5.5 उपकेशगच्छ की श्रमणियाँ (वि. सं. 13वीं सदी से 16वीं सदी) पूर्वमध्यकालीन श्वेताम्बर गच्छों में 'उपकेशगच्छ' का अत्यन्त महत्वूपर्ण स्थान है। जहां अन्य सभी जैन संप्रदाय के गच्छ भगवान महावीर से अपनी परम्परा जोड़ते हैं, वहीं उपकेशगच्छ अपना संबंध भगवान पार्श्वनाथ से जोड़ते हैं। अनुश्रुति के अनुसार इस गच्छ की उत्पत्ति का स्थान राजस्थान का ओसिया (प्राचीन उपकेशपुर ) माना जाता है। परम्परानुसार इस गच्छ के आदिम आचार्य रत्नप्रभसूरि ने वीर नि. संवत् 70 में ओसवाल जाति की स्थापना की थी, किंतु मनीषी विद्वानों ने ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर ओसवाल जाति की स्थापना और इस गच्छ की उत्पति का समय ई. की आठवीं शती के पश्चात् माना है। क्योंकि देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने भगवान महावीर के 980 वर्ष बाद आगमों का संकलन किया, उस समय तक उपकेशगच्छ या ओसवाल जाति का कहीं उल्लेख नहीं मिलता, इस गच्छ में आचार्य रत्नप्रभसूरि, यज्ञदेवसूरि, कक्कसूरि, देवगुप्तसूरि और सिद्धसूरि पाँच नामों से क्रमशः आचार्य परंपरा चली आ रही थी, यह क्रम 35 पट्ट तक चला, उसके बाद कक्कसूरि, देवगुप्तसूरि और सिद्धसूरि इन तीन नामों से आचार्य परम्परा मिलती है। 530 उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर विक्रम की 13 वीं शती से 15वीं शती के अंत तक इस गच्छ का अस्तित्व सिद्ध होता है। 16वीं शती से इस गच्छ से सम्बद्ध साक्ष्यों का नितान्त अभाव यह सिद्ध करता है कि इस गच्छ के अनुयायी किसी अन्य वृहद् गच्छ में सम्मिलित हो गये । FI उपकेशगच्छ में श्रमणियों का स्वतंत्र उल्लेख कहीं नहीं मिलता, किंतु इस गच्छ के महान आचार्यों की माता, भगिनी या पत्नी बनने का सौभाग्य प्राप्त करने वाली ये श्रमणियाँ स्वयं भी महान प्रभावशाली रही होंगी। इनकी सतत प्रेरणा एवं सहयोग ने ही उपकेशगच्छ को समृद्धि के शिखर पर चढ़ाया है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी इन श्रमणियों का महत्व कम नहीं है। प्रभावक चरित्र आदि प्राचीन ग्रंथों में उपकेशगच्छीय श्रमणियों का अस्तित्व वि. पू. 400 से स्वीकार किया गया है। यद्यपि उपकेशगच्छ का यह काल विद्वानों को मान्य नहीं है तथापि अन्य प्रामाणिक सामग्री के अभाव में इसी काल को आधार मानकर यहाँ इस गच्छ की श्रमणियों के जीवन वृत्त आदि का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। 'भगवान पार्श्वनाथ की परंपरा का इतिहास' ग्रंथ उल्लेखानुसार वीर निर्वाण 52 से 84 के मध्य आचार्य रत्नप्रभसूरि ने चतुर्विध श्रमण संघ के साथ शत्रुंजय तीर्थ की यात्रा की थी उसमें 5 हजार साधु-साध्वी सम्मिलित हुए थे तथा आचार्य यक्षदेवसूरि ने भी वी. नि. 84 से 128 के मध्य 37 पुरूष और 60 महिलाओं को दीक्षित किया था। उक्त विवरण से ज्ञात होता है कि आचार्य रत्नप्रभसूरि और 471 For Private & Personal Use Only 530. उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास, पृ. 61 डॉ. शिवप्रसाद, श्रमण पत्रिका वर्ष 42 अंक 7-12, ई. 1919, 531. वही, डॉ. शिवप्रसाद, पृ. 63 www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy