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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास यक्षदेवसूरि के काल में भी यह गच्छ अपने उत्कर्ष पर था। इसके पश्चात् उपलब्ध श्रमणियों का विवरण इस प्रकार है
5.5.1 कुमारदेवी (वि. पू. 79) __ ये उपकेशपुर के राजा उत्पलदेव की संतान परंपरा में श्रेष्टी गोत्रीय 'रावकरत्था' की द्वितीय पत्नी एवं बाप्प नागगौत्रीय राव देपाल की पुत्री थी। रावजी को प्रथम पत्नी से 11 पुत्र हुए, पुत्री की कामना से उन्होंने द्वितीय विवाह कुमारदेवी से किया इन्हें भी एक पुत्र ही हुआ, उसका नाम देवसिंह रखा। आचार्य कक्कसूरि का उपदेश श्रवण कर 16 वर्षीय किशोर देवसिंह को वैराग्य हुआ, उसकी तीव्र भावना देखकर पिता भी दीक्षा लेने को तैयार हो गये, तब कुमारदेवी ने पति से कहा-"जब पुत्र ही घर छोड़कर जा रहा है, और आप भी अपने पुत्र के साथ हैं, तो मैं क्यों पीछे रहूँगी?" इस प्रकार देवसिंह के साथ उसकी माता कुमारदेवी, पिता रावकरत्थ एवं अन्य 35 पुरूष एवं 60 महिलाओं ने वि. पू. 79 के लगभग दीक्षा अंगीकार की। कुमारदेवी के संस्कारों से पल्लवित हुए ये ही देवसिंह आगे जाकर आचार्य देवगुप्त सूरि के रूप में प्रख्यात हुए। जो भगवान पार्श्वनाथ के 14 वें पट्टधर माने जाते हैं।533
5.5.2 जाल्हणदेवी (वि. पू. 12 के लगभग)
उपकेशपुर में चिंचट गोत्रीय शाह रूपणसिंह की ये धर्मपरायणा गृहदेवी थीं। इनके पुत्रों में भोपाल' नाम के पुत्र की आचार्य श्री सिद्धसूरि (द्वि.) के उपदेश से दीक्षा की भावना हुई तो पुत्र का अनुकरण कर पिता रूपणसिंह एवं माता जाल्हणदेवी भी दीक्षित हो गई। इनके साथ अन्य 37 नर-नारी भी दीक्षित हुए थे। सबके नाम उपलब्ध नहीं हैं, इतना ही ज्ञात होता है कि वे मेदिनीपुर फेफावती और सत्यपुरी नगर की समृद्ध महिलाएँ थीं।34
5.5.3 अज्ञातनामा साध्वी (वि. सं. 52)
विक्रम संवत् 52 में जीवदेवसूरि एक महान लब्धिधारी धर्म प्रभावक आचार्य हुए थे। उन्होंने अपने साधु, साध्वियों को एकबार उत्तर दिशा में जाने का निषेध किया था, तथापि दो साध्वियाँ स्थंडिल हेतु उधर चली गई, लौटते समय दुष्ट चित्तवाले योगी ने हाथ लंबा कर लधु साध्वी पर ऐसा चूर्ण डाला कि, वह साध्वी योगी के वश हो वहीं बैठ गई, वृद्धा साध्वी के समझाने पर भी नहीं उठी तो आचार्य जीवदेवसूरि ने अपनी लब्धि से तृण का पुतला बनाकर श्रावकों को दिया, उन्होंने पुतले की कनिष्ठा अंगुली काटी, तो योगी की अंगुली कट गई, इस प्रकार दूसरी अंगुली भी काट डाली। श्रावकों ने उसे डराते हुए कहा-"अरे योगी इस साध्वी को मुक्त कर अन्यथा तेरा मस्तक भी काट दिया जाएगा।"535 आचार्य की लब्धि का प्रत्यक्ष प्रभाव देखकर योगी ने साध्वी को मुक्त कर दिया। यह साध्वी कौन थी, क्या नाम था, ऐसी कोई सूचना प्राप्त नहीं होती।
532. मुनि श्री ज्ञानसुंदर, भगवान पार्श्वनाथ की परंपरा का इतिहास, भाग 1 खंड 1, पृ. 415 533. वही, पृ. 404-5 534. वही, पृ. 396-99 535. मुञ्च साध्वी न चेत्पापं छेत्स्यामस्तव मस्तकम। न जानासि परे स्वे वा शक्त्यंतरमचेतन।। 67 ।।
-प्रभावकचरिते श्री जीवसूरिप्रबन्धः
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