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स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ
..... मालेरकोटला में श्री रूपदेवीजी की शिष्या भागवंतीजी द्वारा करने का उल्लेख है। आर्या भागवंतीजी की स्तुति में दास लाहोरी ने सं. 1972 में एक 13 कड़ी की ढाल बनाई, उसकी प्रति में उनके जगरावां स्वर्गवास का उल्लेख है। इस ढाल की प्रतिलिपि लाजवंती की शिष्या जसवंती ने की। आर्या जसवंतीजी की हस्तलिखित 'तैतीस बोल के थोकड़े' की एक प्रति भी सुशीलमुनि आश्रम (परि. सं. 90/454) में है। 6.7.216 साध्वी ऋद्धिकुमारी (सं. 1973) ___बी. एल. इन्स्टीट्यूट दिल्ली में इनकी सं. 1973 की प्रतिलिपिकृत दो प्रति संस्थान में (परि. 3692/1-2) है-(1) आलाप पद्धति-नयचक्र देवसेनकृत (संस्कृत) (2) पच्चीस द्वार (गुजराती)। 6.7.217 आर्या हीरांजी (सं. 1974)
___ साध्वी भुराजी की शिष्या साध्वी हीरा ने सुखविपाकसूत्र सं. 1974 कार्तिक कृ. 9 शनिवार को पूना (महाराष्ट्र) में लिपिकृत किया, तथा सं. 1973 को आंबोरी (दक्षिण देश) में 'अनुत्तरोपपातिक दशा' सूत्र लिखा। दोनों प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में संग्रहित हैं। 6.7.218 आर्या मया (सं. 1982)
ऋषि हर्षचन्द ने खाचरोद में सं. 1982 आश्विन शु. 3 शुक्रवार को 'जुटकर पद' लिखकर आर्या मयाजी को पठनार्थ प्रदान किया। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.219 आर्या रायकंवर (सं. 1993)
आपके द्वारा रचित 'ढालसागर' जिसमें हरिवंश का विस्तार है सं. 1993 ज्येष्ठ कृ. 8 रविवार की हस्तलिखित प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। इस प्रति के अंत में श्री हरूजी की शिष्या पेमाजी, उनकी शिष्या अजबांजी उनकी शिष्या अमरांजी का गुणकीर्तन भी है। प्रति किशनगढ़ में लिखी गई थी।
उपसंहार
भगवान महावीर द्वारा संस्थापित और श्रीमद् लोकाशाह द्वारा प्रचारित जैनधर्म की मौलिक धारा का अनुगमन करने वाली स्थानकवासी श्रमणियाँ अपने उत्कृष्ट आचार पालन एवं अहिंसात्मक निराडंबर पूर्ण जीवन व्यवहार के लिये प्रसिद्ध हैं। ये श्रमणियाँ प्रमुख रूप से अध्यात्मनिष्ठ साधिका और शास्त्रज्ञा हैं। धर्म के क्षेत्र में व्याप्त आडंबर, बाह्याचार, रूढ़िवाद और जड़ता के विरूद्ध इन्होंने सदैव निर्मल संयम-साधना आंतरिक पवित्रता और साध्वाचार पर बल दिया। 311 तथा 270 दिन तक सर्वथा निराहार रहने की कठोरतम तपस्या भी इन श्रमणियों ने की है। अनेक श्रमणियाँ विशिष्ट व्याख्याता, जैनधर्म एवं दर्शन के गूढ़तम रहस्यों की अनुसंधातृ, उच्चकोटि की लेखिका एवं कवियित्री हैं। प्रतिलेखन एवं साहित्य संरक्षण में भी इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। इन्होंने सैंकड़ों ग्रंथों की प्रतिलेखना और प्रतिलिपि कर उन्हें काल कवलित होने से बचाया है। साहित्य-संरक्षण व प्रतिलेखन में इन्होंने कभी भी सांप्रदायिक दृष्टि को महत्त्व नहीं दिया। किसी भी निर्मांसाहारी घर से भिक्षा ग्रहण कर सकने के कारण ये व्यापक लोक संपर्क कर सकती हैं तथा जैन जैनेतर सभी वर्गों में यहाँ तक कि कारागृहों, विद्यालयों, व्यापारियों, लोकसेवकों में सर्वत्र सार्वजनिक प्रवचन व भाषण भी करती हैं। कहना न होगा कि भगवान महावीर के संघ की ये साध्वियाँ त्याग-वैराग्यपर्वक इस क्रांतिकारी आग्नेय पथ पर अनवरत चलकर विश्व मैत्री संदेश विश्व को दे रही हैं, तथा धर्म शासन की अनुपम सेवा कर रही हैं। स्थानकवासी परम्परा की परिचय प्राप्त अवशिष्ट श्रमणियों का परिचय एवं उनके अवदानों का वर्णन हम तालिका में दे रहे हैं।
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