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________________ श्वेताम्बर-परम्परा की श्रमणियाँ धर्मपत्नी थी, इनका पुत्र 'खेमा' अत्यंत प्रतिभासंपन्न बालक था। माता सरजू के साथ उसने एकबार साध्वीजी के उपाश्रय में द्वार पर बैठे-बैठे सारा प्रतिक्रमण सुनकर सविधि याद कर लिया था। 15 वर्ष की लघुवय में 'खेमा' ने संसार एवं विशाल वैभव को तिनके की तरह छोड़कर आचार्य सिद्धसूरि के चरणों में दीक्षित होने की भावना व्यक्त की तो शाह सलखण एवं धर्मपत्नी सरजू ने भी दीक्षा अंगीकार कर ली।53 5.5.20 श्रमणी करण भार्या (संवत् 724-78) आप उपकेशगच्छ के 41वें पट्टधर आचार्य श्रीसिद्धसूरि की संसारावस्था में भार्या थीं। उपकेशपुर में आदित्यनाग गोत्र की पारख शाखा के धनकुबेर श्रावक, परम धार्मिक श्री अर्जुन श्रेष्ठी की पुत्रवधु थीं। विवाह के साथ ही दोनों पति-पत्नी ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार कर लिया। एवं विजयकुंवर-विजयाकुंवरी के समान एक शय्या पर सोकर भी अखण्ड ब्रह्मचर्य पालन का दृश्य उपस्थित किया। तदनन्तर दोनों ने एक साथ सेठ अर्जुन एवं सेठानी लागू से दीक्षा की अनुमति ली। शा. अर्जुन ने इनका भव्य दीक्षा महोत्सव कर आ. देवगुप्तसूरि के चरणों में समर्पित कर दिया। करण दीक्षा लेकर मुनि चंद्रशेखर से आ. देवसिद्धसूरि बने। आपके साथ अनेक मुमुक्षु आत्माओं ने भी दीक्षा लेकर आत्मकल्याण किया।554 5.5.21 श्रमणी लाडुक भार्या (संवत् 1033-74) ... आप मेदपाट (मेवाड़) प्रान्तीय देवपट्टन नगर में सुघड़ गोत्रीय शाह चतरा की धर्मपत्नी भोली के पुत्र-रत्न लाडुक की धर्मपत्नी थी, जब लाडुक साधारण गृहस्थ की कोटि में आ गये, तब एक योगी ने उन्हें दारिद्र्य विनाशक मंत्र देते हुए कहा कि इसके बदले में तुम्हें जैनधर्म छोड़कर मेरे धर्म को स्वीकार करना होगा। लाडुक ने यह बात अपनी पत्नी से कही-तो धर्म पर दृढ़ निष्ठा वाली उसकी पत्नी ने ललकारते हुए कहा 'क्या पैसे जैसे क्षणिक द्रव्य के लिये आप धर्म को तिलाञ्जलि देने के लिये उद्यत हो गये? मेरी दृष्टि में चिन्तामणि रत्न रूप जैनधर्म का त्याग करना कदापि उचित नहीं।" पत्नी के दृढ़ धार्मिक विचारों को सुनकर लाडुक को अत्यंत आनंद की अनुभूति हुई। वह ऐसी पतिव्रता धर्मपरायणा पत्नी को पाकर स्वयं गौरव का अनुभव करने लगा। कालान्तर में एकबार देवगुप्तसूरि (10वें) का लोद्रवपट्टन में आगमन होने पर लाडुक के मन में वैराग्य भावना जागृत हुई, उनकी पत्नी एवं योगी ने भी दीक्षा अंगीकार की। लाडुक दीक्षा के पश्चात् उपकेशगच्छ के 47 वें आचार्य श्री सिद्धसूरि (10वें) के रूप में महाप्रभावशाली आचार्य हुए। 5.5.22 श्रमणी मोहिनी (संवत् 1055-1108) ___ आप पाटण नगर में बाप्पनाग गोत्रीय नाहटा जाति के कोट्याधीश व्यापारी श्रीचंद के सबसे लघुपुत्र भोजा की धर्मपत्नी थीं। आचार्य सिद्धसूरीश्वरजी के प्रभावोत्पादक व्याख्यान को श्रवण कर दोनों ही निवृत्तिमार्ग की ओर अग्रसर हो गये। भोजा, जो अब मुनि भुवनकलश बन गये थे, उनकी योग्यता एवं गुणों से प्रभावित होकर आ. 553. वही, पृ. 1109-13 554. वही, पृ. 1063-1071 555. वही, पृ. 1411-14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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