________________
जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
हैजे के रोग से ग्रस्त होकर दीक्षा के 15वें दिन ही स्वर्गवासिनी हो गईं। आपके विचार अत्यंत शुभ और उत्कृष्ट थे, प्रतिसमय संसार के दु:खों से छूटने का उपाय ही सोचती रहती थीं।137
6.3.2.42 श्री रोशनमतीजी (सं. 1980-2028)
आप जम्मू के लाला लधुशाहजी ओसवाल की सुपुत्री थीं, माता का नाम कृपादेवी था, सं. 1947 में आपका जन्म हुआ एवं विवाह स्यालकोट के प्रसिद्ध लाला पन्नाशाहजी के पुत्र ला. देशराजजी से हुआ। आप जम्मू के प्रसिद्ध ला. काकूशाहजी जौहरी की भतीजी थीं। पतिवियोग के पश्चात् वैराग्य भाव से सं. 1980 ज्येष्ठ शुक्ला 3 को रावलपिण्डी में दीक्षित होकर श्री मोहनदेवीजी की शिष्या बनीं। आप स्वावलम्बी जीवन में विश्वास करने वाली, गंभीर, साहसी एवं विदुषी साध्वी थीं। आपकी दो शिष्याएँ हुई-श्री हुक्मदेवीजी महाराज एवं पंजाब सिंहनी प्रवर्तिनी श्री केसरदेवीजी महाराज।138
6.3.2.43 महार्या श्री सौभाग्यवतीजी (सं. 1983-2024) 'चंदा'
आपके पिता लूनकरणसरजी संचेती व मातेश्वरी दानीबाई थी। संवत् 1957 में आपका जन्म हुआ 6 भाइयों की इकलौती लाडली बहन थी, 12 वर्ष में विवाह व वैधव्य ने आपके चिन्तन को संयम पथगामिनी बनाया, माघ शुक्ला पूर्णिमा संवत् 1973 में आप श्री धनदेवीजी की शिष्या बनी। आपने दीक्षा से पूर्व ही मासखमण कर तप को जीवन का अभिन्न अंग बना लिया। ज्योतिषज्ञान के साथ आप निर्मल प्रज्ञासंपन्न साध्वी थीं। एकबार गोचरी के लिये छोटी साध्वीजी के साथ गई। आप नीचे ही खड़ी रही, जब वह साध्वी आहार लेकर नीचे उतरी तो आपने कहा-'कौशल्या! तू यहां से तीन रोटी और एक मीठा पूआ लाई है न?' उनकी मतिज्ञान की निर्मलता को देखकर साध्वीजी हैरान रह गईं। आचरण की आप बड़ी पक्की व संयमशील थीं। संवत् 2024 में लुधियाना में आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी दो शिष्याएँ हैं-उपप्रवर्तनी श्री सीताजी, उपप्रवर्तिनी कौशल्या जी।।39
6.3.2.44 श्री हुक्मदेवीजी (सं. 1983-36)
श्री हुक्मदेवीजी महाराज का जन्म वि. सं. 1973 मेरठ जिले के निसौली ग्राम में हुआ। तीन वर्ष की अल्पायु में ही माता भगवानदेवीजी का स्वर्गवास हो गया। पिता प्रभुदयालजी ने मातृसुख से वञ्चित बालिका को श्री पानकंवरजी महाराज के चरणों में समर्पित कर दिया। संवत् 1983 माघ शुक्ला पूर्णिमा के दिन व्याख्यान वाचस्पति पंडित श्री मदनलालजी महाराज के मुखारविन्द से संयमी जीवन अंगीकार कर आपने सर्वविरति चारित्र पर कदम रखा, कि अगले वर्ष की उसी माघ पूर्णिमा के दिन इनकी श्रद्धेया गुरूणीजी भी अपनी जीवन यात्रा पूर्ण कर देवलोक की ओर प्रयाण कर गईं, ये अकेली रह गई। देहली में विराजमान महासती मोहनदेवीजी को पता लगा, तो वे इस बाल साध्वी को अपने पास ले आये, और श्री रोशनदेवीजी की शिष्या के रूप में इन्हें स्थापित किया। आपके साधनामय जीवन की वास्तविक शुरूआत यहीं से हुई। आप प्रज्ञासंपन्न थीं, स्वयं धर्म की गहराई में पहुंचकर तत्वों के मर्म को समझतीं, और अपने पास में आने वाले बच्चों व महिलाओं में धर्म के संस्कार भरती
137. वही, पृ. 208 138. वही, पृ. 209 139. उपप्रवर्तनी श्री कौशल्यादेवीजी जीवन दर्शन, पृ. 52
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org