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प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ
योगदान :- विश्व संस्कृति को ब्राह्मी और सुन्दरी का अप्रतीम योगदान रहा है। वैदिक युग में वैदिक ऋचाओं की सर्जिका ब्रह्मवादिनी नारियों से भी शतगुना, सहस्रगुना अधिक गौरव ऋषभदेव की इन दोनों पुत्रियों का है। इन्होंने ही युग की आदि में श्रमणी-संघ की नींव डाली। इनकी मेधा के उत्स से ही ज्ञान-विज्ञान का अजस्र स्रोत प्रवाहित हुआ। आज विश्व में जितनी भी वर्णरूप या अंक रूप विद्याएँ हैं उनके विकास का बीज ब्राह्मी और सुन्दरी की उर्वर बुद्धि से अंकुरित पुष्पित व फलित हुआ है।
2.3.3 फल्गु
फल्गु द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ की प्रथम नारी शिष्या थी। ये तीन लाख तीस हजार श्रमणियों की प्रमुखा थी। श्वेताम्बर-ग्रंथ समवायांगा में 'फलगू' प्रवचनसारोद्धार में 'फग्गू' 'फग्गुणी' तथा दिगम्बर ग्रंथों में प्रकुब्जा' नाम है श्रमणियों की संख्या भी तीन लाख बीस हजार कही है।16
2.3.4 श्री विजयादेवी
द्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथजी की माता श्री विजयादेवी अयोध्या नगरी के राजा जितशत्रु की रानी थीं। अजितनाथ भगवान ने केवलज्ञान के पश्चात् चतुर्विध तीर्थ की स्थापना की, उसीमें विजयादेवी भी उत्कृष्ट भावों के साथ घनघाती कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान केवलदर्शन को प्राप्त हुई तथा अंत में सिद्धगति प्राप्त की।
2.3.5 सुलक्षणा
दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ के पास सुलक्षणा ने दीक्षा ग्रहण की। यह शालिग्राम के दामोदर ब्राह्मण के पुत्र शुद्धभट्ट की पत्नी थी, जैन साध्वी प्रवर्तिनी विपुला की प्रेरणा से इसे शुद्ध सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई, उसने अपने पति को भी शुद्ध सम्यक्त्व की प्रेरणा दी। धर्म के सही स्वरूप को समझकर शुद्धभट्ट ने सुलक्षणा के साथ दीक्षा ग्रहण की और अनेक वर्षों तक विशुद्ध श्रमणाचार का पालन कर दोनों मोक्ष में गये। सुलक्षणा शय्यातरी भी थी, उसने प्रवर्तिनी साध्वी विपुला को अपने मकान का बाहरी कक्ष चातुर्मास के लिए प्रदान किया था।
2.3.6 विपुला
__ अजितनाथ भगवान के समय की प्रभावशालिनी साध्वी थी। अपने साथ अन्य दो साध्वियों को लेकर इसने शालिग्राम निवासी शुद्धभट्ट की पत्नी सुलक्षणा की आज्ञा से उनके ही निवास स्थान पर चातुर्मास किया। प्रतिदिन धर्मोपदेश देकर अनेक भव्य जीवों को शुद्ध मार्ग बताया। सुलक्षणा को भी इनके सदुपदेश से धर्म की रूचि जागृत हुई, उसके अन्तस्तल में सम्यक्त्व का उद्योत हुआ, आगे जाकर सुलक्षणा ने दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त किया।
15. समवायांग, सूत्र 649 गा. 433; प्राकृत प्रोपर नेम्स भाग 1 पृ. 484 16. द. जै. मौ. इ., भाग 1 पृ. 815 17. (क) समवायांग, सूत्र 634, गा. 9 (ख) जै. मौ. इ., भाग 1 पृ. 828 18. (क) त्रि.श.पु.च. 2/3/861-937 (ख) जै. मौ.इ. भा.1 पृ. 158-162 19. त्रि. श. पु. च. 2/3/861-937
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