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जैन श्रमणियों का बहद इतिहास
6.3.1.17 श्री सूरजकुंवरजी (सं. 1930 के लगभग)
आपकी जन्मभूमि कुडगांव (अहमदनगर) थी, गुगलिया गोत्र में विवाहित हुई। पांच वर्षीय पुत्र का मोह छोड़कर श्री रंभाजी केपास 'कड़ा' में दीक्षित हुई। आपका शास्त्रीय ज्ञान व कंठकला अच्छी थी। कोकिला के समान मधुर स्वर से जब आप प्रभु-प्रार्थना और वैराग्य-रस के पदों का उच्चारण करती तो श्रोतागण भक्ति विह्वल हो जाते थे। आवाज भी आपकी बुलन्द थी, स्वभाव शांत और सरल था। आपके पुत्र ने भी दस वर्ष
की उम्र में पूज्य श्री जवाहरलालजी म. के पास दीक्षा अंगीकार की, उनका नाम श्री श्रीमलजी म. रखा गया, वे विद्वान, उत्साही, पंडित, वक्ता एवं प्रमुख संतों में गिने जाते थे।12
6.3.1.18 श्री चन्द्रकुंवरजी ( -1993)
आप कड़ा निवासी नवलमलजी सिंघी की सुपुत्री एवं पारनेर निवासी श्रीमान् चुन्नीलाल जी सिंघवी की धर्मपत्नी थी, डेढ़ वर्ष में ही पतिवियोग से विरक्त होकर 15 वर्ष की उम्र में श्री रंभाजी म. के पास 'कड़ा' में ही दीक्षा अंगीकार की। आपने संस्कृत प्राकृत, आगम आदि का उच्चकोटि का ज्ञान प्राप्त किया। आप का कंठ अतिशय मधुर था, आपके भक्ति व वैराग्य के पदों को श्रवण कर लोग भाव विभोर हो जाते थे। आपके सदुपदेश से अनेकों ने मांस, मदिरा, हिंसा, परस्त्रीगमन आदि के प्रत्याख्यान किये, छोटे-2 ग्रामों में विचरण कर आपने महाराष्ट्र की जनता पर खब उपकार किया। आपको चार शास्त्र कंठस्थ थे। संवत 1993 दौंड में आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी दो शिष्याएँ हुईं-श्री प्रभाकुंवरजी, श्री इन्द्रकुंवरजी।
6.3.1.19 श्री नंदूजी (सं. 1936-83)
नासिक जिले के साइखेड़ा ग्राम के निवासी श्री मेघराजजी नाबरिया की धर्मपत्नी चंदनबाई की कुक्षि से सं. 1914 में जन्म हुआ, विवाह के पश्चात् 22 वर्ष की उम्र में संवत् 1936 चैत्र शु. 13 को कविवर्य श्री तिलोकऋषि जी म. सा. के मुखारविंद से दीक्षा लेकर हीराजी म. की शिष्या बनीं। आपने 30 सूत्र और 200 थोकड़ों का गहन अध्ययन किया। आप उग्र तपस्विनी थीं- कर्मचूर, धर्मचक्र, चक्रवर्ती के 13 तेले, अठाइयाँ, पंचरंगी तप, एक से 15 तक तप, 18, 21 आदि तपस्याएँ की। आपकी श्री छोटाजी, प्रवर्तिनी श्री सिरेकंवरजी, श्री रायकंवरजी, श्री राधाजी, श्री केसरजी, श्री सायरकुंवरजी, जड़ावकुंवरजी 7 शिष्याएँ हुई। संवत् 1983 मार्गशीर्ष शुक्ल 3 को उपवास के दिन अहमदनगर में आपका महाप्रयाण हुआ।
6.3.1.20 श्री चंपाजी (संवत् 1936-51)
आप घोड़नदी (पूना) निवासी श्री गंभीरमलजी लोढ़ा की धर्मपत्नी थीं, संसार से विरक्ति हो जाने पर पुत्री सहित सं. 1936 आषाढ़ शु. 9 के दिन पूज्यपाद श्री तिलोकऋषिजी के मुखारविंद से दीक्षा धारण कर श्री हीराजी की शिष्या बनीं। आपमें सहनशीलता, शांतता, गंभीरता, सरलता आदि विशिष्ट सद्गुण थे। क्षमामूर्ति श्री
42. ऋ. सं. इ., पृ. 375 43. ऋ. सं. इ., पृ. 380 44. ऋ. सं. इ., पृ. 297
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