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________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास यात्रा संपन्न की एक भी गच्छ से बहिर्भूत नहीं हुई न एक भी संयम जीवन से च्युत हुई। इस शासन में 7 कुमारी कन्याएं थीं, अधिकांश साध्वियों ने अपनी तपः प्रधान साधना, ज्ञान आराधना, सेवाभावना से भिक्षु शासन को दीप्तिमान किया। 7.9.1 श्री दाखांजी (सं. 1954-72) श्री दाखांजी 'पुर' (सं. 1954-2004) 7/1-2 ये दोनों सास-बहू थीं, दोनों एक ही नाम राशि की। 'पुर' मेवाड़ के बंवलिया गोत्र में ब्याही थीं। दाखांजी (सास) ने पति नाहरसिंहजी का देहावसान होने के बाद चैत्र कृ. 3 को पुत्र कनीरामजी, पुत्रवधू दाखांजी और पौत्र शक्तमलजी के साथ सप्तम आचार्य श्री डालगणी के द्वारा बीदासर में चैत्र कृष्णा 3 को दीक्षा ग्रहण की। श्री डालगणी के युग की ये सर्वप्रथम दीक्षाएँ थीं। इनमें श्री दाखांजी (पुत्रवधू) बड़ी तपस्विनी हुईं, उनकी विविध तपस्या की तालिका इस प्रकार है-उपवास 2700, बेले 250, तेले 25, चोले 35, पचोले 35, छह से आठ का तप 2 बार एवं दस का तप एक बार किया। इन्होंने 4 बार तीर्थंकरों की लड़ी (प्रथम तीर्थंकर का एक उपवास, क्रमशः चौबीसवें तीर्थंकर के 24 उपवास), एक हजार आयम्बिल और सात मास एकान्तर तप किया। सं. 2004 को सुजानगढ़ में आपका स्वर्गवास हुआ। 7.9.2 श्री लाडांजी 'लाडनूं' (सं. 1955-2037) 7/10 श्री लाडांजी का जन्म मुलतानमलजी बोरड़ के यहां सं. 1944 कार्तिक कृ. 11 को हुआ। सं. 1955 वैशाख कृष्णा 5 को श्री डालगणी के द्वारा राजगढ़ में दीक्षित हुईं। दीक्षा के पश्चात् शिक्षा प्रारंभ हुई, सहज बुद्धि और आन्तरिक लगन के परिणामस्वरूप सैद्धान्तिक, तात्विक, भाषायी तथा इतिहास के संदर्भ में गहन प्राप्त किया, व्याख्यान कला, लिपिकला, तात्त्विक चर्चा में आप शीघ्र ही दक्ष बन गईं। साध्वीश्री के वैविध्य गुण, नियमित-चर्या व योग्यता को परखकर आचार्य श्री डालगणी ने सं. 1963 में इन्हें अग्रणी पद पर नियुक्त किया इनका सिंघाड़ा प्रभावशाली था। आपने स्थान-स्थान पर जाकर शासन की गरिमा को बढ़ाया। श्रावक-श्राविकाओं में ये 'मीरां', 'जूनी जोगण' आदि नाम से प्रसिद्ध थीं। आप उच्चकोटि की तपसाधिका भी थीं, आपके तप का विवरण इस प्रकार है-उपवास 7000, बेले 140, तेले 50, चोले 22, पचोले 5 तथा 6, 7, 8, 9, 13, 26, 27 का तप एक बार। डूंगरगढ़ में आपने भाई-बहनों में संयम की ज्योति जागृत की। आपकी प्रेरणा से वहां की 36 बहनों और 5 भाइयों ने दीक्षा ली। वहीं पर सं. 2037 में 271 दिन की संलेखना में 140 दिन की तपस्या कर इस पौद्गलिक शरीर से सदा के लिये विदाई ली। 7.9.3 श्री हीरांजी 'नोहर' (सं. 1957-2013) 7/20 आपश्री का जन्म, स्थली प्रदेश के रीणी (तारानगर) ग्राम में सं. 1933 में श्री मालचंदजी लूनिया के यहां तथा विवाह 'जवरासर' के श्री किसनलालजी चोरड़िया से हुआ। पतिवियोग के पश्चात् श्री चौथांजी द्वारा तारानगर में दीक्षा अंगीकार की। आप साधुचर्या में सजग, सुविनीत एवं सरलता की प्रतिमूर्ति थीं, श्रमपूर्वक पांच शास्त्र व स्तोक याद किये, अनेक भाई-बहनों को तात्विक ज्ञान सिखाकर उनके हृदय में धार्मिक श्रद्धा बीज वपन किया सं. 1983 से आप अग्रणी के रूप में विचरी, आपके प्रेरणास्पद उपदेशों से ज्ञान-ध्यान, त्याग-तपस्या की खूब अभिवृद्धि हुई। आपने संयमी जीवन में 2492 उपवास, 31 बेले, 2 तेले, 14 चोले, 1 पांच की तपस्या की। अंत में पूर्ण जागृत अवस्था में मोमासर में स्वर्गगमन किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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