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________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 7.9.4 श्री रतनांजी 'सुजानगढ़' (सं. 1957-2008) 7/24 आप श्री रामलालजी बोथरा की धर्मपत्नी थी, नोखों के श्री जैतरूपजी बांठिया के यहां संवत् 1938 में आपका जन्म हुआ। आप पतिवियोग के पश्चात् श्री डालगणी से ज्येष्ठ शुक्ला 14 को बीदासर में दीक्षित हुईं। आप प्रभावशालिनि साहसी साध्वीजी थीं, सं. 1966 से अग्रणी रूप में विचरण कर शासन में अच्छी ख्याति प्राप्त की। आपके साथ नानूंजी नामकी साध्वी थी, शरीर से शिथिल हो जाने के कारण वे एकबार गर्मी के उपद्रव से निढाल सी हो गईं, रतनाजी ने उन्हें धैर्य व साहस का संबल प्रदान किया, उसी दिन शाम को रतनांजी स्वयं स्वर्गवासिनी हो गईं, तीन घंटे के पश्चात् उसी दिन नानूंजी का भी स्वर्गवास हो गया। दोनों साध्वियों ने संयम ही जीवन है अत: उसीको प्रमुखता देकर डीडवाना में प्राणोत्सर्ग कर दिया। 7.9.5 श्री लाछूजी 'सरदार शहर' (सं. 1958-2004)7/32 आप श्री किस्तूरचंद दूगड़ की सुपुत्री थीं, 12 वर्ष की उम्र में स्थानीय श्री तोलाराम जी सिंघी के साथ विवाह हुआ, एक वर्ष में ही आप श्री वैधव्य को प्राप्त हो गईं। 13 वर्ष की अवस्था में श्री डालगणी द्वारा सुजानगढ़ में आपने दीक्षा अंगीकार की। आपने कई आगम स्तोत्र आदि कंठस्थ किये। आप अग्रगामिनी साध्वी थीं, साथ ही बड़ी साहसिका एवं शारीरिक सौष्ठव से युक्त थीं, विहार में अपने कंधों पर काफी वजन उठाकर चलती थीं। सं. 2004 को बीदासर में दिवंगत हुईं। आपने उपवास से लेकर नौ तक (पांच को छोड़कर) लड़ीबद्ध तप किया। 7.9.6 श्री मौलांजी 'चाडवास' (सं. 1959-2011) 7/43 आपका जन्म संवत् 1927 राजलदेसर के श्री मूलचंदजी दूधोड़िया के यहां हुआ। आप श्री टीकमचंदजी बोथरा की धर्मपत्नी थीं, पतिवियोग के बाद गोगुंदा में श्री डालगणी द्वारा माघ कृष्णा 10 को दीक्षा अंगीकार की। आप घोर तपस्विनी थीं, संयमी जीवन में स्वीकृत तप की तालिका इस प्रकार है-उपवास 3039, बेले 420, तेले 180, चोले 80, पचोले 37, छह 1, सात 3, आठ दो, नौ 5, दस 3, ग्यारह 2, बारह 3, तेरह 2, चौदह 1, पंद्रह 1, सोलह 2, सत्रह 2, अठारह 1, इस प्रकार 52 वर्ष तपोपूत जीवन की झांकी दिखाकर 84 वर्ष की उम्र में लाडनूं में दिवंगत हुई। 7.9.7 श्री बखतावरजी 'मोखणुंदा' (सं. 1959-2015) 7/46 आप मेवाड़ देवगढ़ के श्री डालचंदजी देसरड़ा की पुत्री थीं, 8 वर्ष की कोमलवय में ही आजीवन नवकारसी तथा जमीकंद न खाने का नियम ले लिया। शादी के तीसरे ही दिन पतिवियोग की स्थिति ने जीवन को पूर्णतः संसार से विरक्त कर दिया आप मोखणुंदा में आषाढ़ शुक्ला नवमी के दिन श्री रायकवरजी द्वारा दीक्षित होकर श्रमणी बनीं। सं. 1992 में अग्रगण्या का प्राप्त पद त्यागकर भी ग्रामानुग्राम विचरण कर आपने जन-जन को धार्मिक बोध दिया। आप बड़ी आचारनिष्ठ, पापभीरु स्पष्टभाषिणी एवं निर्भीक थीं। आगम बत्तीसी का आपने कई बार वाचन किया। 825 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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