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दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ
लघुवय में ही सांसारिक सुख-समृद्धि का त्यागकर आर्यिका व्रत ग्रहण किया था। कठोर तप, जप एवं नियमों का पालन करती हुई अंत में संलेखना व्रत अंगीकार किया। श्रवणबेलगोल की चन्द्रनाथ वसति में इन्होंने देह त्याग किया।
इनकी माता काललदेवी की भावना से ही चामुण्डराय ने 978 ईसवी में गोमटेश्वर (बाहुबलि) की विश्वविश्रुत 57 फुट ऊँची खड्गासन में स्थित प्रतिमा का निर्माण कराकर प्रतिष्ठा कराई थी, जो शिल्पकला तथा मूर्तिविज्ञान की अद्वितीय कलाकृति है। आचार्य हस्तीमल जी महाराज ने अपने इतिहास-ग्रंथ में गंगनरेश राचमल्ल-राजमल्ल का समय ईस्वी सन् 974 से 984 का वर्णित किया है, किन्तु चामुण्डराय, जिन्होनें श्रवणबेल्गोल की गगनचुम्बी मूर्ति का निर्माण करवाया; उसकी प्रतिष्ठा का समय बाहुबलि चरित्र में उल्लिखित संवत् एवं तिथि के अनुसार प्रमुख इतिहासज्ञों ने सन् 1028 में 23 मार्च का दिन माना है।49
4.6.23 अमृतब्बे कन्ति (वि. सं. 1032)
प्रो. हीरालाल जी जैन ने 'कन्नड़ जैन शिलालेखों में जैन संत' लेख में 'मैसूर आर्कियोलोजिकल रिपोर्टस् 1939-65 के अनुसार साध्वी अमृतब्बे कति का उल्लेख किया है, उनका समाधिमरण 975 ईस्वी में हुआ। 4.6.24 माकब्बे गंति (संवत् 1070)
बोमलापुर मैसूर शक संवत् 935 ई. सन् 1013 का कन्नड़ शिलालेख है। इसमें माकब्बेगति के समाधिमरण का उल्लेख है, जिसका स्मारक बीचगवुड़ ने स्थापित किया था।" 4.6.25 आर्या हुलियबाज्जिके (संवत् 1073) ___आप सौराष्ट्रगण चित्रकुटान्वय के श्री नंदी पंडित की शिष्या थीं, आपको जैन सेंक्च्युरी के लिए धाखाड़ जिले के सोरटूर ग्राम में संवत् 1071(3) में एक भूमि दान स्वरूप प्राप्त हुई थी। इसी प्रकार का उल्लेख एक अन्य साध्वी के लिये भी प्राप्त होता है। इस उल्लेख में अष्टोपवासी कतियर को संवत् 1076 में गुडीगेरे में जैन पार्श्वनाथ मंदिर के लिये भूमि प्राप्ति की सूचना है। उक्त उल्लेखों से यह सिद्ध होता है कि साध्वियाँ सर्वतंत्र समर्थ होती थीं, साध्वियों की आंतरिक देखरेख के लिये साध्वियाँ साधुओं पर अवलम्बित नहीं थीं।
4.6.26 पनिवव्वे आर्यिका (11वीं सदी)
पनिवव्वे गंगवंश में वीर मार्तण्ड राजा चामुण्डराय के वंश की राजकुमारी थी, उसने आर्यिका व्रत ग्रहण किये थे। श्री अजितसेनाचार्य और नेमिचन्द्राचार्य उस समय चामुण्डराय के गुरू होने से आर्यिका पनिवव्वे भी उन्हीं के संघ में दीक्षित हुई प्रतीत होती है।54 48. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग 3 पृ. 269
49. जै. शि. सं. भाग 1 की भूमिका पृ. 31 50. जैन सिद्धान्त भास्कर पृ. 69 दिसंबर 1940 51. 'वि. जोहरापुरकर, जै. शि. सं. भाग 4 पृ. 74 52-53 रामभूषणप्रसाद सिंह, जैनिज्म इन अर्ली मिडिवल कर्नाटका (500 से 1200 ई.) पृ. 129-30 प्रकाशक-मोतीलाल
बनारसीदास, दिल्ली 1975 (प्र. सं.) 54. भ. महावीर और उनका तत्वदर्शन, पृ. 422
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