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5.1.4 प्रवर्तिनी श्री विमलमती ( संवत् 1150 से 1165 के मध्य )
आपका उल्लेख एक काष्ठफलक से उपलब्ध हुआ है, जो शेठ शंकरदान नाहटा कलाभवन बीकानेर में सुरक्षित है। उससे आप जिनदत्तसूरि के आचार्य पद प्राप्ति के पूर्व ( श्री सोमचन्द्रगणि) के समय की श्रमणी प्रतीत होती हैं। जिस पट्ट पर आप विराजमान हैं, उस पर आपका नाम 'प्रवर्तिनी विमलमती' और आपके सामने दो साध्वियाँ हैं, जिनके नाम 'नयश्री', 'नयमतिम्' लिखा हुआ है। इनके सम्बन्ध में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है । काष्ठफलक का चित्र अध्याय एक में दिया गया है । "
5.1.5 अज्ञातनामा महत्तरा (सं. 1169 के लगभग )
संवत् 1169 में जिनदत्तसूरि की शिष्या महत्तरा साध्वी कौमल्या की अज्ञातनामा एक शिष्या का उल्लेख प्राप्त हुआ है। वह नारनौल के श्रीमाल श्रावक की पुत्री थी, विवाह के पश्चात् विधवा हो जाने पर परिवारीजनों ने उसे पति के साथ ही 'सती' होने के लिये बाध्य किया, वह भयभीत बनी आचार्य के पास आई, आचार्यश्री ने उसे कौमल्या साध्वी के पास 12 वर्ष रखकर दीक्षा प्रदान की। एकबार उसके वस्त्रों में अनेक जुएँ देखकर आचार्यश्री ने भविष्यवाणी की - "यह सातसौ साध्वियों की अग्रणी होगी", वैसा ही हुआ, उसे 'महत्तरा' पद प्रदान किया गया। आगे चलकर उसने अपनी गुरूणी कौमल्या साध्वी के कहने पर धर्मशासन की प्रभावना के दस महान कार्य किये। इस साध्वी का नाम एवं उसके द्वारा किये गये दस महान कार्यों का वर्णन उपलब्ध नहीं है। "
जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
5.1.6 श्री शांतिमती गणिनी ( संवत् 1172 )
आप आचार्यश्री जिनदत्तसूरिजी की शिष्या थी । संवत् 1172 में इन्हें 'गणिनी' पद से विभूषित किया था। ‘स्वप्न सप्ततिका प्रकरणगत गाथा सटीक' की ताड़पत्रीय प्रति में भी उक्त साध्वीजी के नाम का उल्लेख है। ग्रंथ की भाषा संस्कृत प्राकृत मिश्रित है, ग्रंथाग्र 250 व मूल गाथा 38 है, इस पर कर्ता का नाम नहीं है। यह प्रति संवत् 1215 की है।° शांतिमतिगणिनी के साथ कितनी ही श्राविकाओं ने अपनी जिज्ञासाएँ रखी थीं, वे 'संदेह दोहावली' नाम से प्रसिद्ध हैं । "
5.1.7 श्रीमती, जिनमती, पूर्णश्री, ज्ञानश्री, जिनश्री ( 12वीं सदी )
आप सभी जिनेश्वरसूरि के शिष्य श्री जिनदत्तसूरि की शिष्याएँ थीं। श्री जिनदत्तसूरि ने बागड़ देश में इन पाँचों को दीक्षित किया था। सूरिजी की आज्ञा से ये पाँचों साध्वियाँ अध्ययनार्थ धारानगरी भी (म. प्र. ) गई थीं। अध्ययन कर वापिस आने के बाद इन पाँचों को सूरिजी ने 'महत्तरा' पद से विभूषित किया। 2 जिनदत्तसूरि का आचार्य काल संवत् 1169 से 1211 तक है। 3
8. जिनदत्तसूरि अष्टम शताब्दी ग्रंथ, पृ. 56
9. श्री जिनविजयजी, खरतरगच्छ पट्टावली, परिशिष्ट 3, पृ. 46
10. श्री जंबूविजयजी, जैसलमेर ग्रंथ भंडारों की सूची, परिशिष्ट 13, पृ.608
11. नंदलाल देवलुक्, जिनशासन नां श्रमणी रत्नो, पृ. 150
12. ख. बृ. गु., पृ. 18, 19
13. श्री जिनदत्तसूरि द्वारा अजमेर से बागड़ की ओर विहार में 52 साध्वियों व अनेक साधुओं को दीक्षा देने का उल्लेख है, उसमें जिनरक्षित और शीलभद्र इन दो भाइयों ने भी अपनी माता के साथ दीक्षा ली थी । अन्य साध्वियों के नाम एवं दीक्षा तिथि आदि का उल्लेख नहीं है।- म. विनयसागर, खरतरगच्छ का इतिहास, भा. 1, पृ. 39
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