SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 331
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.1.1 महत्तरा श्री कल्याणमति (संवत् 1060-1110 के लगभग ) साध्वी कल्याणमति खरतरगच्छ की वे साध्वी हैं जो इस गच्छ की प्रथम महत्तरा बनीं | युगप्रधानाचार्य गुर्वावली के अनुसार कल्याणमति को 'महत्तरा' पद आचार्य वर्धमानसूरि ने प्रदान किया था। उनके द्वारा जिनेश्वर और बुद्धिसागर भ्राताद्वय एवं उनकी भगिनी कल्याणमति की दीक्षा होने का भी उल्लेख है। जिनेश्वर एवं बुद्धिसागर जन्मजात ब्राह्मण थे, अतः कल्याणमति भी निश्चित् रूप से ब्राह्मण कुल में ही जन्मी थीं। बंधुओं द्वारा अपनाये गये पथ को समुचित जानकर कल्याणमति ने भी प्रव्रज्या स्वीकार कर ली थी। ज्ञान, ध्यान, स्वाध्याय में वैशिष्ट्य प्राप्त कर वे 'महत्तरा' पद पर आरूढ़ हुईं। संवत् 1095 में श्री धनेश्वरसूरि ने प्राकृत में 4 हजार गाथा प्रमाण 'सुरसुंदरी कथा' रची, उसमें उक्त गुरू भगिनी का अलंघ्य वचन ही एकमात्र कारण है, ऐसा सूचित किया है 5.1.2 प्रवर्तिनी श्री मरूदेवी ( 11वीं सदी) खरतरगच्छ के आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि की ये स्वगच्छीय साध्वी थी या शिष्या इसकी प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती, इतना उल्लेख अवश्य मिलता है कि श्री जिनेश्वरसूरि आशापल्ली से विहार कर डिंडियाणा ग्राम पधारे, तब मरूदेवी ने 40 दिन का संथारा लिया था, अंत समय में सूरिजी ने उससे अपने उत्पत्ति स्थान की जानकारी देने को कहा। देव पर्याय को प्राप्त मरूदेवी ने आचार्यश्री को 'म स ट स ट च ये संकेताक्षर दिये सूरिजी ने जान लिया कि ये तीन गाथाओं के आदि अक्षर हैं, उन्होंने वे तीनों गाथाएं ज्यों की त्यों लिख दी। उसने आचार्यश्री से यह भी कहा कि " आप चारित्र के लिये अधिक से अधिक उद्यम करें शेष कार्यों से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा । ' मरूदेवी के संदेश से आचार्यश्री ने भी प्रेरणा प्राप्त कर अंत समय संलेखना द्वारा देह का त्याग किया। साध्वी मरूदेवी द्वारा दिये गये संदेश से प्रतीत होता है कि वह संयमनिष्ठ, चारित्रसम्पन्न आत्मार्थिनी साध्वी थी। " 5.1.3 शासन प्रभाविका श्रमणियाँ ( संवत् 1141 के आसपास) श्री जिनदत्तसूरि खरतरगच्छ के प्रभावशाली आचार्य हुए। कहा जाता है कि जिनेश्वरसूरि के शिष्य उपाध्याय धर्मदेव की आज्ञानुवर्तिनी साध्वियों ने धोलका निवासी भक्त 'वाछग' और उसकी पत्नी 'बाहड़देवी' के पुत्र 'सोमचन्द्र' को सर्वलक्षणों से युक्त देखकर उसे दीक्षा हेतु प्रेरणा दी थी। उनकी प्रेरणा व प्रभावोत्पादक उपदेश से बालक 'सोमचंद्र' जैनधर्म में ( संवत् 1165) दीक्षित हुआ । यही बालक आगे चलकर 'जिनदत्तसूरि' के नाम से खरतरगच्छ का नायक बना। इन साध्वियों के नामों का उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ । ' - 4. तयोर्भगिनी कल्याणमति नाम्नी महत्तरा कृता । श्री जिनविजयजी संपादित, खरतरगच्छ बृहद्गुर्वावलि पृ. 5 5. अगरचंद नाहटा, ऐतिहासिक लेख संग्रह, पृ. 338 6. मरूदेवी नाम अज्जा गणिनी जाआसि तुम्ह गच्छम्मि। सग्गम्मि गया पढमे देवो जाओ महड्ढिओ ।। 1 ।। टक्कलयम्मि विमाणे दो सागर आउसो समुप्पणो । समणेसस्स जिणेसरसूरिस्स इमं कहिज्जासु ।। 2 11 टक्कउरे जिणवन्दण निमित्त मिहागएण देवेण । चरणम्मि उज्जमो भो कायव्यो किं च सेसेहिं ॥। 3 ॥ - श्री जिनविजय जी संपादित खरतरगच्छ पट्टावली पृ. 2 7. ख. बृ. गु., पृ. 14-15 Jain Education International 269 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy