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• प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ- परम्परा की श्रमणियाँ
अंनगसुन्दरी तथा अपने प्रिय पुत्र केशी के साथ जैन श्रमणदीक्षा अंगीकार की थी। उपकेशगच्छ पट्टावली के अनुसार बार्षिकेशी जातिस्मरणज्ञान के साथ-साथ चतुर्दश पूर्वधारी प्रकाण्ड प्रतिभासम्पन्न आचार्य हुए। 140
2.4.6 सोमा जयन्ती
आवश्यक चूर्णि में पार्श्वनाथ के अनेक श्रमणों का उल्लेख मिलता है। जो महावीर की साधु जीवन की चारिका के समय मौजूद थे। उनमें उत्पल नाम के एक श्रमण पार्श्वनाथ परम्परा में दीक्षित हुए थे, बाद में दीक्षा छोड़कर अस्थिर ग्राम में ज्योतिषी बनकर रहने लगे।
उत्पल की दो बहने थी- सोमा और जयन्ती । इन्होंने भी पार्श्वनाथ की दीक्षा छोड़कर परिव्राजिकाओं की दीक्षा ले ली थी। किंतु महावीर के प्रति भक्ति रखती थीं। एक बार गांव के आरक्षक साधनावस्था में स्थित महावीर के साथ दुर्व्यवहार करने लगे, तब इन्होंने उनको रोका और कष्ट के लिए उनसे क्षमा मांगी। 141
2.4.7 विजया - प्रगल्भा
ये दोनों परिव्राजिकाएं भी पूर्व में पार्श्वनाथ की परम्परा में दीक्षित हुई थीं, किन्तु कठोर संयम का पालन न कर सकने के कारण परिव्राजक - दीक्षा अंगीकार करली, तथापि भगवान पार्श्वनाथ के सिद्धान्तों के प्रति आस्थावान थीं। भगवान महावीर छद्मास्थावस्था में एकबार कूपिक ग्राम में पधारे तो वहाँ के आरक्षक पुरूषों ने उन्हें गुप्तचर समझकर बन्दी बना लिया था। विजया-प्रगल्भा उसी समय भगवान महावीर के दर्शन हेतु वहाँ आई, भगवान को बंदी अवस्था में देखकर तथा उन पर लगे असत्य आरोप को जानकर दोनों ने नगररक्षकों को भगवान का सही परिचय दिया। 142
2.4.8 जसा
डॉ. अशोक कुमार सिंह ने तीर्थंकर पार्श्वनाथ की परम्परा में "जसा" नाम की एक आर्यिका का उल्लेख किया है जो तीर्थंकर महावीर की समकालिक थी। मलयगिरिकृत आवश्यक टीका में उक्त साध्वी के उल्लेख का वर्णन किया है। 143
2.4.9 मदनरेखा
मदनरेखा सुदर्शनपुर के नृप मणिरथ के अनुज युगबाहु की पत्नी थी । मणिरथ ने उस पर आसक्त होकर अपने अनुज को मार डाला। मणिरथ भी सर्पदंश से मृत्यु को प्राप्त हो गया । मदनरेखा अपने शील एवं गर्भस्थ बालक की रक्षा के लिए भाग निकली, उसने अरण्य में पुत्र को जन्म दिया। तभी सरोवर पर प्रक्षालन के लिए जाते समय एक विद्याधर ने मदनरेखा का अपहरण कर लिया। चतुराई से अपने शील की रक्षा करके मदनरेखा साध्वी बन गई। उसके
140. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग 1, पृ. 527
141. चोराय चारि अगडे सोम जयंति उवसमेइ-आव. नि. हारि वृ. भाग 1 गा. 477; आव. चू. पूर्वार्ध, पृ. 286
142. "दुरप्पा! ण याणह चरम तित्थकरं सिद्धत्थराय पुत्तं " 143. श्रमणी रत्ना श्री सज्जनकुंवर अभि. ग्रंथ खंड
आव. नि. (हरिभद्र) भाग 1 पृ. 139; आव. चू. भाग 1 पृ. 291 4, पृ. 373
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