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________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ के साथ हुआ, शादी के पश्चात् इन्हें गृहस्थ जीवन की निरर्थकता का बोध हुआ, और संवत् 1865 में दीक्षा ली। संवत् 1890 श्रावण शु. 14 को संथारे द्वारा शरीर त्याग किया। इनकी स्तुति विषयक एक रचना 'मूलीबाई ना बारमास' संवत् 1892 मागसर शु. 13 गुरूवार, सायला में लोंकागच्छीय श्रावक श्री हरषा के पुत्र सबराज ने रची। उस समय वहाँ राजा वख्तसिंह का शासन था। 15 6.1.12 आर्या धन्नोजी (सं. 1871 ) जब उत्तरार्ध लोंकागच्छीय श्रीपूज्य आचार्य विमलचन्द्र स्वामी को हयवतपूर (पट्टी जि. अमृतसर) में संवत् 1871 माघ शु. 5 मंगलवार के दिन आचार्य पद दिया गया, तो उन्होंने यतियों के नाम पर एक विज्ञप्ति लिखी, उसमें अपने अनुयायी यतियों को पंजाब के जो-जो क्षेत्र धर्म प्रचारार्थ सौंपे थे, उनमें आर्या धन्नोजी को-होशियारपुर, आर्या लछमीजी को-वैरोवाल, आर्या सुखमनीजी को - अंबाला क्षेत्र सौंपने का उल्लेख है। यह विज्ञप्ति - पत्र श्री वल्लभस्मारक जैन प्राच्य शास्त्र भंडार दिल्ली में सुरक्षित हैं । " 6.1.13 आरजा लक्ष्मीजी, सुखमनीजी (सं. 1880 ) वि. सं. 1880 माघ शुक्ला 5 बृहस्पतिवार के दिन श्रीमत्पूज्य राजचन्द्रजी स्वामी के पूज्य पदवी प्रदान महोत्सव के समय अमृतसर में उन्होंने अपने अनुयायी यतियों एवं यतिनियों को क्षेत्र सोंपे। जिसमें आरजा लक्ष्मीजी को-होशियारपुर एवं आरजा सुखमनीजी को थानेसर और समाना क्षेत्र सुर्पुद करने का उल्लेख है। इस महोत्सव में 16 जती, 41 आर्या पधारी थीं। 17 6.2 क्रियोद्धारक आचार्य श्री जीवराजजी महाराज की श्रमणी - परम्परा : लोंकागच्छ की स्थापना के आठ पाट तक मुनियों का शुद्धाचरण चलता रहा। 17वीं शताब्दी के अंत में आचरण शैथिल्य प्रारंभ हो गया और चैत्यवास जैसी बुराईयां प्रविष्ट होने लगीं। परिणामतः क्रियोद्धार करके श्री जीवराजजी लोंकागच्छ से पृथक् हो गये इन्होंने कठोर संयम पालन का आदर्श प्रस्तुत कर शुद्ध एवं सादगीमय जीवन जीने की शिक्षा दी, जिससे ये बहुत लोकप्रिय हुए। इनकी पांच शाखाएँ विद्यमान हैं- (1) पूज्य श्री अमरसिंहजी महाराज, (2) पूज्य श्री नानकरामजी महाराज, (3) पूज्य श्री स्वामीदासजी महाराज, (4) पूज्य श्री शीतलदासजी महाराज (5) पूज्य श्री नाथूरामजी महाराज। इनमें पूज्य श्री स्वामीदासजी महाराज और श्री नाथूरामजी महाराज की साध्वी - परम्परा का उल्लेख प्राप्त नहीं होता। शेष तीन में प्रथम शाखा के आचार्य अमरसिंहजी महाराज थे। इनकी परम्परा में आज तक 1150 से भी अधिक साध्वियाँ हो चुकी हैं। उनमें से कुछ उपलब्ध साध्वियों का परिचय इस प्रकार है 18 15. हिं. जै. सा. इ. भाग 4, पृ. 224 16. हीरालाल दुगड़, मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म, पृ. 343-44 17. वही, पृ. 343-44 18. कुसुम अभिनंदन ग्रन्थ, संपादिका - डॉ. दिव्यप्रभा, खण्ड-2, पृ. 103 - 117 Jain Education International 533 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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