________________
जैन श्रमणियों का बहद इतिहास
6.2.1 आचार्य श्री अमरसिंहजी महाराज का श्रमणी-समुदाय : 6.2.1.1 श्री भागांजी (सं. 1810)
पंचेवर ग्राम में संवत् 1810 वैशाख शुक्ला 5 मंगलवार को स्थानकवासी साधु-साध्वियों का एक सम्मेलन रखा गया, उसमें पूज्य अमरसिंहजी म. के लघु गुरूभ्राता श्री दीपचंदजी म. एवं इस परम्परा की साध्वी भागांजी अपनी शिष्या परिवार के साथ वहाँ उपस्थित हुई थी। भागांजी का जन्म दिल्ली में हुआ था, आचार्य अमरसिंहजी महाराज से आपने आहती दीक्षा ग्रहण की थी। अनुश्रुति है कि इन्हें बत्तीस आगम कंठस्थ थे, इन्होंने अनेक शास्त्र, ग्रंथ, रास, चौपाई आदि की प्रतिलिपि भी की थी। ये एक महान विदुषी, शास्त्रज्ञा, प्रमुखा साध्वी थीं। इस परंपरा की सभी साध्वियाँ 'भागांजी' को 'आद्यश्रमणी' स्वीकार करती हैं। इनकी परंपरा में 1100 से भी अधिक साध्वियाँ हो चुकी हैं। जिनका चार्ट महासती केसरदेवी गौरव ग्रंथ में उल्लिखित है। आर्या भागांजी की शिष्या वीरांजी और उनकी शिष्या सद्दा जी थीं। 6.2.1.2 श्री सद्दांजी (सं. 1877-1921)
अद्वितीय रूप व गणसम्पदा को लेकर ये राजस्थान के सांभर गांव में पीथोजी मोदी की पत्नी 'पाटनदे' की कुक्षि से संवत् 1857 पोष कृ. दशमी को अवतरित हुई। जोधपुर रियासत के अधिकारी श्री सुमेरसिंहजी मेहता के साथ आपका विवाह हुआ, उनका स्वर्गवास होते ही आपने दूध, दही, घी, तेल और मिष्टान्न का आजीवन त्याग कर दिया था। भोजन में केवल रोटी और छाछ का ही उपयोग करती थीं, पति के स्वर्गवास पर आर्तध्यान भी नहीं किया। आपने महासती भागांजी की शिष्या वीरांजी के पास संवत 1877 जसौल ग्राम (बाडमेर) में दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के पश्चात् 18 शास्त्र थोकड़े कंठस्थ किये, दार्शनिक धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन भी किया, विभिन्न क्षेत्रों में परिभ्रमण कर धर्म की खूब प्रभावना की। संवत् 1921 में 55 दिन का संथारा करके ये जोधपुर में स्वर्गस्थ हुई। आपकी अनेक शिष्याएँ थी जिनमें श्री फत्तूजी, श्री रत्नाजी, श्री चेनाजी, श्री लाधाजी, श्री अमताजी, ये 5 मुख्य थीं। फत्तजी का विहार क्षेत्र मारवाड रहा, आपकी अनेक शिष्याएँ भी हईं किंतु सभी का परिचय उपलब्ध नहीं होता, महासती रत्नांजी का विचरण मेवाड में रहा, मेवाड में जितनी साध्वियाँ हैं, वे रत्नां जी के परिवार की है। श्री चेनांजी सेवाभाविनी एवं श्री लाधांजी उग्रतपस्विनी थीं। श्री सद्दांजी को अंत में 55 दिन का संथारा आया था। संवत् 1921 को जोधपुर में ये दिवंगत हईं।
6.2.1.3 श्री अमृतांजी (सं. 1877 के पश्चात्)
आपश्री सद्दांजी की पांचवीं शिष्या थीं, आपकी परम्परा में श्री रायकुंवरजी हुई जो प्रतिभा सम्पन्न साध्वी थी। उनका जन्म उदयपुर के निकट 'कविता' ग्राम में हुआ, आप ओसवाल तलेसरा परिवार की थी, इससे अधिक और कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। 6.2.1.4 श्री लछमांजी (संवत् 1928-56)
आपका जन्म उदयपुर राज्य के तिरपालग्राम निवासी रिखबचंदजी मांडोत की धर्मपत्नी नन्दूबाई की कुक्षि से संवत् 1910 में हुआ, मुनि श्री किसनाजी और वच्छराजजी आपके भाई थे। आपका पाणिग्रहण मादड़ा ग्राम के 19. साध्वी विजयश्री 'आर्या' महासती केसरदेवी गौरव ग्रंथ, खंड-3, पृ. 297-300
534
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org