________________
जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास अत्युच्च शिखर को छुआ है। समणी साधिकाओं में श्री स्थितप्रज्ञा जी, कुसुमप्रज्ञा जी, उज्ज्वलप्रज्ञा जी, अक्षयप्रज्ञाजी आदि विदुषी चिन्तनशील समणियाँ हैं, जो उच्चकोटि का साहित्य सृजन कर समाज को नई दिशा प्रदान कर रही हैं तथा सुदूर देश विदेशों में जाकर ध्यान, योग, जीवन विज्ञान आदि का प्रशिक्षण दे रही हैं।
__ वस्तुतः जैन धर्म में श्रमणियों के योगदानों की एक लम्बी सूची है, जिन्होंने समाज को नया विचार, नया चिन्तन और नई वाणी दी एवं प्रसुप्त समाज को प्रबुद्ध बनाया। जैन श्रमणियाँ दिव्य साधना की मुँह बोलती तस्वीरें हैं, ये प्रत्येक काल, प्रत्येक क्षेत्र और प्रत्येक सम्प्रदाय में व्यापक रूप से दृष्टिगोचर होती हैं। शोध
मर्यादा और सीमा होने से हम उनकी विस्तृत चर्चा नहीं कर पाये। इनमें कितनी ही श्रमणियों ने अहिंसक और व्यसनमुक्त समाज की संरचना में सहयोग दिया तो कितनी ही श्रमणियों ने धार्मिक व आध्यात्मिक उत्कष्ट तपोमय जीवन के साथ आगम स्वाध्याय, ध्यान साधना, तप-जप संलेखना आदि करते हुए आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त किया। कितनी ही महाविदुषी श्रमणियों ने चिन्तन प्रधान, उच्चस्तरीय ग्रंथों की रचना की, कइयों ने काव्य क्षेत्र में सुन्दर आध्यात्मिक गीत प्रस्तुत किये, जिनमें काव्य जगत की सभी शैलियों और प्रवृत्तियों को खोजा जा सकता है । कइयों ने स्कूल, कॉलेज, धार्मिक पाठशालाएँ, धर्म स्थान व प्राचीन मन्दिरों के जीर्णोद्धार आदि में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, कइयों ने जन कल्याण और मानव सेवा जैसे रचनात्मक कार्य करके धर्म व समाज के ने आगम वाणी व प्राचीन ग्रंथों की सुरक्षा हेतु प्रतिलिपिकरण का कार्य किया। वीतराग संस्कृति को अक्षुण्ण रखने के लिए अनेक श्रमणियों ने मिथ्यात्व पोषक परम्पराओं एवं शिथिलाचार के विरूद्ध क्रियोद्धार कर स्वस्थ परम्परा का निर्माण किया। ये सभी वे महत्त्वपूर्ण पहलू हैं, जिन पर पृथक्-पृथक् रूप से शोध की आवश्यकता है। श्रमणियों का योगदान प्रत्येक क्षेत्र में अनूठा है, अनुपम है, विशिष्ट है। उनमें ऐतिहासिक शोध की पर्याप्त सामग्री है।
श्रमणियाँ एक प्रज्वलित ज्योति हैं, उनमें प्रज्ञा का प्रकाश भी है और आचार की उष्मा भी है। उनका जीवन ज्ञान और क्रिया, बुद्धि और विवेक, प्रज्ञा और प्रक्रिया का समन्वित रूप है। इन्द्रधनुष से भी अधिक वे जिनशासन रूपी गगन में शोभा को प्राप्त हुई हैं, उनका व्यक्तित्त्व अलौकिक आभा से मंडित रहा है। इतना होने पर भी आज के युग में श्रमणियों को लेकर समाज के समक्ष कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जो अनुत्तरित हैं और अब समाधान चाहते हैं कि योग्य, गुणी और ज्ञानवान चिरदीक्षिता साध्वी भी एक सामान्य नवदीक्षित साधु से निम्न स्थानीय क्यों मानी जाती हैं ? चतुर्विध संघ उसे संघनायिका की गरिमा क्यों नहीं प्रदान करता ? लोक व्यवहार में जब वह माता, ज्येष्ठ भगिनी आदि के रूप में पूज्यनीय बन सकती है, तो दीक्षा के पश्चात् लघु साधुओं द्वारा वंदनीय और पूज्यनीय क्यों नहीं रहती ? आज का श्रमण वर्ग जब प्राचीन महासतियों का गुणानुवाद और स्तुति, वंदन इत्यादि कर सकता है तो अपने से पूर्व दीक्षिता साध्वी माता, साध्वी गुरूणी या स्थविरा साध्वी को नमन क्यों नहीं कर सकता, क्यों उसे बैठने, बोलने या आवास-निवास, विचार-गोष्ठी आदि में उच्च अथवा समान दर्जा नहीं दिया जाता? वस्तुतः इन वैदिक या बौद्ध संस्कृति के प्रभाव से ग्रस्त परम्पराओं के पुनर्मूल्यांकन की आज आवश्यकता है। श्रमण वर्ग को चाहिये कि वे अपने अहं का विसर्जन कर महावीर के समतावादी सिद्धान्तों की पुनर्स्थापना करने का साहसिक कदम उठाये। यथार्थ की दहलीज पर खड़े होकर श्रमणियों के साथ समता और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करें, उनकी प्रतिभा और क्षमता के अनुसार उनके अधिकारों को देने का साहस करें। सभी जैन परम्पराओं के चतुर्विध संघ इस धर्म विपरीत, लोक विपरीत आचरण पर प्रतिबन्ध लगाकर जैन धर्म की सात्विकता और गरिमा को बनाये रखने में अपना सहयोग दें। इस शोध प्रबन्ध का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य यह भी है और श्रमणियों का गरिमापूर्ण इतिहास इस क्रान्तिकारी परिवर्तन की अपेक्षा भी रखता है।
992||
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org