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उपसंहार
परवाह न कर जीवदया के अनेकों कार्य किये। घोर तपस्विनी श्री वरजूजी ने 82 दिन के उपवास कठोर कायक्लेश के साथ किये थे। श्री मोताजी तथा श्री नानूकंवरजी बृहद् श्रमणी संघ की जीवन निर्मानृ तथा आगम ज्ञान की गहन अध्येत्री थीं। श्री साकरकंवर जी श्री कमलावती जी अत्यन्त विदुषी ओजस्वी वक्ता थी। कृशकाया में अतुल आत्मबल की धनी श्री पानकंवरजी ने 42 दिन के संथारे में जिस प्रकार देहाध्यास का त्याग किया, वह धूलिया के इतिहास | अद्वितीय था। वर्तमान में डॉ. सुशीलजी, डॉ. चंदनाजी, डॉ. अक्षयज्योतिजी, डॉ. मधुबालाजी, श्री सत्यसाधनाजी श्री अर्चनाजी आदि जैनधर्म की यशस्विनी साध्वियाँ हैं।
तेरापंथ धर्म संघ के श्रमणी संघ का इतिहास विक्रमी संवत् 1821 से प्रारम्भ हुआ, तब से लेकर अद्यतन पर्यन्त 1700 से अधिक श्रमणियाँ संयम पथ पर आरूढ़ होकर अपने तप त्याग के द्वारा जिन शासन की चहुंमुखी उन्नति में सर्वात्मना समर्पित हैं। आचार्य भिक्षुजी के समय श्री हीरांजी 'हीरे की कणी' के समान अनेक गुणों से अलंकृत प्रमुखा साध्वी थी। श्री वरजू जी, दीपांजी, मधुरवक्त्री, आत्मबली, नेतृत्त्व निपुणा प्रमुखा साध्वी थीं। श्री मलूकांजी ने आछ के आगार से छहमासी, चारमासी आदि उग्र तप एवं सात मासखमण आदि किये। साध्वी प्रमुखा सरदारांजी कठोर तपाराधिका थी। संघ संगठन व शासनोन्नति में इनका योगदान अपूर्व था। श्री हस्तूजी, श्री रम्भा जी, श्री जेतांजी, श्री झूमाजी, श्री जेठांजी आदि की तपस्याएँ इस भौतिक युग में चौंकाने वाली हैं। साध्वी प्रमुखा गुलांबाजी की स्मरण शक्ति और लिपिकला बेजोड़ थी। श्री मुखांजी अद्भुत क्षमता युक्त, आगमज्ञा साध्वी थीं। श्री धन्नाजी दीर्घ तपस्विनी थीं, इन्होंने अन्य तपाराधना के साथ लघु सिंहनिष्क्रीड़ित तप की चारों परिपाटी पूर्ण कर तप के क्षेत्र में एक अद्भुत कीर्तिमान कायम किया। श्री लाडांजी उच्च कोटि की तपोसाधिका थीं, इनके वर्चस्वी व्यक्तित्त्व से प्रभावित होकर अकेले डूंगरगढ़ से 36 बहनों और 5 भाइयों ने संयम अंगीकार किया। श्री मौलांजी, श्री सोनांजी, श्री कंकूजी, श्री भूरांजी, श्री चांदाजी, श्री अणचां जी, श्री प्यारां जी, श्री भूरा जी, श्री नोजांजी, श्री तनसुखा जी, श्री मुक्खांजी, श्री जड़ावांजी, श्री पन्नांजी, श्री भत्तूजी आदि ने विविध तपो अनुष्ठान कर अपनी आत्मशक्ति का परिचय दिया। श्री संतोकाजी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न साध्वी थीं, ये शल्य चिकित्सा, लिपिकला, चित्रकला आदि में भी निपुण थीं। श्री मोहनांजी ने दूर-दूर के प्रान्तों में विचरण कर धर्म की महती प्रभावना की।
तेरापंथ के नवम आचार्य श्री तुलसी जी का शासन तेरापंथ के इतिहास का स्वर्णकाल कहा जा सकता है। इस काल की साध्वियों ने प्रत्येक क्षेत्र में एक मिसाल कायम की है। समण श्रेणी द्वारा जो धर्म प्रभावना का व्यापक रूप दृष्टिगोचर होता है, वह भी इस युग की नई देन है। इस संघ में श्री गौरांजी जैसी संकल्पमना साध्वी जहाँ पाकिस्तान (लाहौर) से नेपाल तक और नागालैंड तक जैन धर्म का प्रचार करने में अग्रणी रहीं। वहीं कई धर्मोपकरणों का कलात्मक निर्माण और सैंकड़ों उद्बोधक चित्र भी इन्होंने बनाये। मातुश्री वदनांजी ने आचार्य तुलसी सहित तीन सन्तानों को तो संयम मार्ग प्रदान कर जैन शासन को अभूतपूर्व योग प्रदान किया ही, साथ ही स्वयं भी दीक्षित होकर तपोमयी जीवन बनाया। श्री चम्पा जी ने 77 दिन का संथारा कर संघ को गौरवान्वित किया। श्री मालू जी ने 20 वर्ष और श्री सोहनांजी ने 54 वर्ष एक चादर ग्रहण कर परम तितिक्षा भाव का परिचय दिया। श्री सूरजकंवरजी और श्री लिछमांजी सूक्ष्माक्षर व लिपिकला में दक्ष थी तो श्री कंचनकुंवर जी शल्य चिकित्सामें निपुण थी। श्री प्रमोदश्री जी, श्री सुमनकुमारी जी द्वारा भी कई कलात्मक कृतियाँ निर्मित हुई। श्री संघमित्रा जी, श्री राजिमती जी, श्री जतनकंवर जी, श्री कनकश्री जी, श्री यशोधरा जी, श्री स्वयंप्रभा जी आदि कई श्रमणियों ने चिंतन प्रधान उत्तम कोटि का साहित्य जनजीवन को प्रदान किया। महाश्रमणी एवं संघ महानिदेशिका साध्वी प्रमुखा श्री कनकप्रभा जी की अजस्र ज्ञान गंगा से लगभग 115 पुस्तकों का लेखन व सम्पादन हुआ है, जो अपने आप में अनूठा कार्य है। जयश्री जी आदि कई श्रमणियों की उत्कृष्ट काव्य कला की विद्वज्जनों ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। अमितप्रभा जी आदि कई साध्वियाँ शतावधानी हैं। श्री लावण्यप्रभा जी उज्ज्वलप्रभा जी, सरलयशा जी, सौभाग्ययशाजी आदि कई श्रमणियों ने शिक्षा के
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