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आशीर्वचन
आचार्य श्री उमेशमुनि जी महाराज 'अणु' 'इतिहास-लेखान अति दुरुह कार्य है। उसमें भी अनेक गच्छ उपगच्छों सम्प्रदाय-उपसम्प्रदायों में विभाजित जैन इतिहास का लेखन और भी महान भगीरथ काम है। फिर श्रमणियों के इतिहास का लेखन तो और भी दुरुह है। क्योंकि श्रमणों का भी क्रमबद्ध और असंदिग्ध इतिहास मिलना कठिन है तो फिर श्रमणियों के इतिहास के विषय में कहना ही क्या? श्रमणों की श्रमणियों के प्रति उपेक्षा हो, ऐसा भी नहीं है, परन्तु श्रमण और श्रमणियाँ साधना-प्रधान दृष्टिवाले रहे हैं। श्रमण स्वयं अपने चरित्र के प्रति भी उदासीन थे तो वेसाध्वियों की परम्परा का संकलन कहाँ से करते? फिर भी गुणग्राहिता की दृष्टि से कुछ न कुछ लेखन प्रायः होता ही था। आपने उस विरल सामग्री को क्रमबद्ध करके लेखन किया।
इतनी सुदीर्घ-कालावधि के विषय में लेखन में सावधानी रखते हुए भी भ्रम होने की संभावना रहती है। फिर पिछले काल के सम्बन्ध में परस्पर विरोधी लेखन भी काफी रहा है। आपश्री ने श्रमणियों के इतिहास जैसे श्रम साध्य विषय पर एक हजार पृष्ठ जितने विशालकाय ग्रन्थ का लेखन कर जैन इतिहास की बहुत बड़ी कमी को पूर्ण किया। अतः आपके श्रम का हम हृदय से अभिनन्दन करते हैं।
आचार्य उमेशमुनि
ढोरेगांव 14-11-06
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