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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास मूर्तिपूजक श्रद्धा के बनाये। 20 वर्ष की दीक्षा-पर्याय में इन्होंने 16 छ'री पालित संघ निकाला, अनेक स्थानों पर उपाश्रय, जिनालय, गुरू मंदिर आदि बनवाये। इनके पास पाँच विदुषी कन्याओं ने दीक्षा ग्रहण की-धर्मरत्नाश्री, चिद्वताश्रीजी, गीतव्रताश्रीजी, भव्यव्रताश्रीजी, नम्रव्रताश्रीजी।304
5.3.1.30 चिद्वर्षाश्रीजी - (संवत् 2031-2045)
संवत् 2004 में नवसारी के श्री बाबूभाई के यहाँ आपका जन्म व संवत् 2031 माघ शुक्ला 5 नवसारी में ही दीक्षा अंगीकार की। ये श्री मृगेन्द्र श्रीजी की महान तपस्विनी शिष्या थीं। स्वजीवन में तपधर्म को ही स्थान देकर 5 वर्षीतप किये, पारणे में प्रथमवर्ष एक विगय, दूसरे वर्ष दो, तीसरे वर्ष तीन, चौथे वर्ष में चार और पाँचवें वर्ष में पाँचों विगय का त्याग कर दिया। वर्षीतप के पारणे में मासखमण, सिद्धितप फिर अठाई से तप शुरू किया अठाई का पारणा करके अठाई तथा पारणे में एक धान्य से आयंबिल, ऐसी 13 अट्ठाईयाँ पूर्ण की। 14वीं अठाई के 5वें दिन सर्वजीवों से क्षमापना करके ये समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुईं।305
5.3.2 आचार्य विजय प्रेमरामचन्द्रसूरिजी महाराज का श्रमणी समुदाय
सम्पूर्ण जैन समाज में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रमणियों की संख्या अप्रतिम है, उनमें सर्वाधिक साध्वियाँ तपागच्छ की और उनमें भी सर्वाधिक समुदाय वर्तमान में आचार्य विजय रामचन्द्रसूरिजी का आंका गया है, सन् 2004 की चातुर्मास सूची के अनुसार इस समुदाय की साध्वियों की संख्या 873 है, जो अपने उत्कृष्ट संयमी जीवन द्वारा मानव मात्र में अहिंसा, दया, शांति व समता का संदेश दे रही हैं। अतीत से वर्तमान तक उपलब्ध इस समुदाय की श्रमणियों का विशिष्ट व्यक्तित्व एवं साधना का परिचय अग्रिम पंक्तियों में दिया जा रहा है।
5.3.2.1 श्री कल्याणश्रीजी (सं. 1968-2038 )
बड़ोदरा जिले के डभोई ग्राम के श्रीमंत श्रेष्ठी मगनभाई के यहाँ संवत् 1953 में इनका जन्म हुआ। संवत 1968 माघ कृष्णा 13 को विवाह के पश्चात् श्री चतुरजी की शिष्य बनकर ये संयम पथ पर अग्रसर हुईं। इन्होंने अपने जीवन में लगभग 165 शिष्या-प्रशिष्याओं को प्रतिबोध देकर जिनशासन की महती अभिवृद्धि की। ये स्वयं तपोमूर्ति थीं, और अनेक शिष्याओं को ज्ञान व तप के मार्ग पर बढ़ने की प्रेरणा दी। इन्होंने मासखमण, सिद्धितप, बीसस्थानक, अट्ठम व छ8 से अरिहंत सिद्धपद की आराधना, चत्तारि अटु, परदेशी राजा का तप, दीपावली तप, कर्मप्रकृति, कर्मसूदन, कषायजय, अक्षयनिधि, चौमासी, 45 आगम, रत्नपावड़ी, वर्धमान तप की 82 ओली, नवपद ओली 40, पंचमी, दशमी ग्यारस, मेरूतेरस, चैत्री पूनम, 99 यात्रा चार बार (एक आयंबिल एक छट्ठ व एक अट्ठम के साथ), 300 उपवास, 700 आयंबिल, 900 एकासणा, 2000 बियासणा आदि तपस्याओं में अपने को समर्पित कर रखा था। 86 वर्ष की उम्र में सेवाड़ी में ये स्वर्गस्थ हुईं।306
304. वही, पृ. 217 305. वही, पृ. 219 306. 'श्रमणीरत्नो', पृ. 270-72
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