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पूर्व पीठिका
वेदों में उल्लिखित अर्हन् वातरशना, केशी, व्रात्य, मुनि, श्रमण आदि शब्द श्रमण-परम्परा से घनिष्ठ संबंध रखते हैं। इससे यह द्योतित होता है कि ऐतिहासिक युग के प्रारंभ से ही श्रमण-परंपरा और वैदिक-परम्परा साथ-साथ प्रवहमान रही है।
यद्यपि वर्तमान में जैन और बौद्ध दोनों श्रमण संस्कृति की शाखा है, किंतु इस प्राचीन श्रमण परंपरा में औपनिषद् और सांख्य योग की धाराएँ भी सम्मिलित थीं जो आज वृहद् हिंदू धर्म का अंग बन चुकी हैं। आजीविक आदि कुछ श्रमण-परम्पराएँ लुप्त भी हो गई हैं। 1.4 जैन श्रमण संस्कृति की विशेषता
जैन श्रमण संस्कृति निर्दोष पुरूष अर्थात् राग-द्वेष अज्ञान आदि दोषों से रहित आप्त-पुरूषों की वाणी के आधार पर सृजित है। ऐसे पुरूष को सर्वज्ञ, परमात्मा, वीतराग, अरिहंत आदि नामों से जाना-पहचाना जाता है।
जैन श्रमण संस्कृति का उद्घोष है कि आत्मा स्वरूपतः निर्मल और निर्विकार है। हमारे राग-द्वेष रूप परिणामों से आकृष्ट होकर कर्म पुद्गल आत्मा के मूल स्वरूप को आवृत कर लेते हैं। आत्मा की इस वैकारिक स्थिति को दूर करने के लिये संवर (नवीन कर्मों के आगमन को रोकना) और निर्जरा (पुरातन कर्मों का क्षय करना) की साधना अपेक्षित है। यह साधना चाहे ब्राह्मण हो या क्षत्रिय, वैश्य हो या शूद्र, स्त्री हो या पुरूष, जो भी कर्म-मुक्ति की इच्छा रखता है, वही कर सकता है। आत्मिक पुरूषार्थ द्वारा आत्मा को परमात्मा की स्थिति तक पँहुचाने का सभी को समान अधिकार है। जैन श्रमण संस्कृति की यही मूलभूत विशेषता है।
जैन श्रमण संस्कृति की अन्य विशेषता अहिंसा की प्रतिष्ठा करना है। यहाँ क्रिया, वाणी और मानस में सर्वत्र, अहिंसा की अनिवार्यता प्रतिपादित की है। अहिंसा जैन संस्कृति के आचार और विचार का केन्द्र है। अहिंसा का जितना सूक्ष्म विवेचन और विशद विश्लेषण जैन संस्कृति में हुआ है, उतना विश्व की किसी भी संस्कृति में नहीं हुआ। यहाँ आमिष मात्र तो अग्राह्य है ही, यहाँ तक कि मिट्टी, पानी, अग्नि, वायु एवं वनस्पति में भी जीव का अस्तित्व मानकर श्रमण-श्रमणी के लिये उसके स्पर्श तक का निषेध किया है। आचार-विषयक अहिंसा का यह उत्कर्ष जैन श्रमण-संस्कृति के अतिरिक्त अन्य कहीं नहीं मिलता।
जैन श्रमण संस्कृति समता प्रधान संस्कृति है। यह समता मुख्यतः तीन क्षेत्रों में देखी जा सकती है।(1) समाज विषयक (2) साध्य विषयक (3) प्राणी जगत विषयक।'
समाज विषयक समता का अर्थ है-श्रेष्ठत्व और कनिष्ठत्व का आधार जाति, वर्ण, लिंग या वेष नहीं, अपितु गुण या कर्म है।1० अभ्युदय की क्षमता का समान होना साध्य विषयक समता है तथा प्राणीमात्र को आत्मवत् समझना प्राणी विषयक समता है। यह समता ही श्रमण-संस्कृति का प्राण है।
समता के अनेक रूप हैं-आचार की समता अहिंसा है, विचारों की समता अनेकान्त है, समाज की समता
8. डॉ. सागरमलजी जैन, डॉ. विजय कुमार जैन, स्थानकवासी परंपरा का इतिहास, पृ. 10 9. देवेन्द्रमुनि शास्त्री, साहित्य और संस्कृति, पृ. 114 10. समयाए समणो होइ, बम्भचेरेण बम्भणो।
नाणेण य मुणी होइ, तवेण होई तावसो।।
-उत्तराध्ययन 25/30
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