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________________ पूर्व पीठिका उक्त उल्लेख से यह स्पष्ट होता है कि वी. नि. की चतुर्थ शताब्दी के मध्य जैन श्रमणों के साथ ही जैन श्रमणियों ने भी शास्त्रों को आंशिक रूप में ही सही, लिखना प्रारम्भ कर दिया था। तत्पश्चात् आर्य स्कंदिल के नेतृत्व में लगभग वी. नि. संवत् 830 से 840 के मध्यवर्ती समय में उत्तर भारत के मुनियों का मथुरा में एवं लगभग इसी काल में दक्षिणापथ में आचार्य नागार्जुन के नेतृत्व में वलभी में श्रमण - सम्मेलन हुआ, उसमें 11 अंगों का संकलन किया गया, वे सूत्र माथुरी वाचना एवं नागार्जुनीय या वलभी वाचना के नाम से प्रसिद्ध हुए। वे भी कुछ भोजपत्र और ताड़पत्रों पर लिखे गये थे। 252 उसके पश्चात् वीर निर्वाण 980 में आचार्य देवर्द्धिगणी ने वलभी में आगमों को सुव्यवस्थित एवं संपूर्ण रूप में लिपिबद्ध करने-करवाने का कार्य किया। यद्यपि मथुरा और वलभी वाचना में श्रमणियों द्वारा लिखने का कोई लेख उपलब्ध नहीं होता, तथापि वीर निर्वाण चतुर्थ शताब्दी में श्रमणियों द्वारा लिखने के जो प्रमाण उपलब्ध होते हैं, उससे यह सुनिश्चित होता है कि यह परम्परा आगे भी चलती ही रही होगी । श्रमण संघ में श्रमणी संघ का भी अन्तर्भाव हो जाने से उनके सहयोग का पृथक् उल्लेख नहीं किया होगा। 253 तथापि श्रमण - संघ जब-जब श्रुतरक्षा, आगम विचारणा हेतु कहीं पर एकत्रित हुआ, वहाँ श्रमणियाँ भी पहुँची ही होंगी और समय-समय पर शास्त्र लेखन आदि कार्य किये ही होंगे, यह तथ्य अनुमान से स्पष्ट होता है। वर्तमान में बहुत खोज करने पर भी उस समय की लिपि अथवा उसके आसपास के सौ दो सौ वर्षों तक लिपि किये गये साहित्य का एक भी पत्र प्राप्त नहीं होता। ताड़पत्र, भोजपत्र आदि पर लिखी गई वलभी की सभी प्राचीन पांडुलिपियाँ आज निःशेष प्रायः हो चुकी हैं। या तो वे धर्म विद्वेषी लोगों की शिकार बन गईं, या ग्रंथ भंडार में पड़ी - पड़ी दीमकों की भक्ष्य बन गईं, या फट गईं, या गलकर नष्ट हो गईं। आज जितने भी हस्तलिखित ग्रंथ प्राप्त होते हैं, वे प्रायः विक्रम की 11वीं शताब्दी के बाद के हैं। वर्तमान में लगभग एक हजार वर्ष का इतिहास हमें पांडुलिपियों के आधार पर उपलब्ध होता है। ये पांडुलिपियाँ हमें विशेष रूप से दिल्ली के ग्रंथ-भंडारों में देखने को मिली। बी. एल. इन्स्टीट्यूट ऑफ इंडोलोजी दिल्ली में लगभग दस हजार ग्रंथों की महत्त्वपूर्ण पांडुलिपियाँ अप्रकाशित सूची के रूप में संग्रहित हैं। सैंकड़ों श्रमणियों द्वारा मरु - गुर्जर भाषा में 'सस्तबक' लिखे जाने की सूचना मिलती है, जो 15वीं से 20वीं सदी के मध्य की हैं। प्रतिलिपिकार के नामोल्लेख के प्रति उपेक्षा भाव होने से शेष पांच हजार प्रतियों में किसी श्रमणी का उल्लेख सूची में अंकित नहीं है। शंकररोड नई दिल्ली में आचार्य सुशील मुनि जी महाराज द्वारा संग्रहित लगभग तीन हजार हस्तलिखित ग्रंथों की प्रतियाँ अवलोकनार्थ प्राप्त हुई, शास्त्रों की पांडुलिपियाँ करने वाली अधिकांश श्रमणियाँ हैं। कई श्रमणियों ने ढाल, रास, चौपई, प्रबन्ध, स्तोक आदि की प्रतिलिपि की हैं, कुछ ऐसी भी श्रमणियाँ हैं जिनके पठनार्थ प्रतिलिपियाँ तैयार की गई, कुछ श्रमणियों की मौलिक रचनाएँ भी इसमें सम्मिलित हैं, आर्या लक्षमां जी (सं. 1850 ) आर्या जमुना जी (सं. 1884) आर्य कस्तूरी (सं. 1967) आर्य रायकंवर (सं. 1993) आर्य पार्वती जी (सं. 1947) आदि उत्कृष्ट कोटि की लेखिका कवियित्री श्रमणियाँ थीं। इन्होंने ग्रंथ के अंत में अपनी संप्रदाय एवं गुरूणी-परंपरा का भी उल्लेख किया है। किंतु इन ग्रंथों की न सूची प्रकाशित है न ही रजिस्टर में नामांकन है। ऐसे ही सैंकड़ों स्थल हैं, जहाँ हस्तलिखित ग्रंथों के अपार भंडार असुरक्षित रूप से पड़े हैं, यदि इन सभी की सूचियाँ उपलब्ध हो तो श्रमणी विषयक कितनी ही महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रकाश में आ सकती है। 252. वही, पृ. 649 253. चउव्विहे समण-संघे पण्णत्ते, समणा, समणीओ, सावया, सावियाओ - भगवतीसूत्र 20/8 Jain Education International 55 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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