________________
जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास विरला पालइ नेहडउ तुमसु (तो?) प्राण आधारो रे।
तुम बिना हुँ क्युं कर रहुं, दुखिया तुं साधारो रे।।15 ॥१० 5.1.96 प्रवर्तिनी हेमसिद्धि (संवत् 1662 के लगभग)
__ आपने स्वयं अपना कोई परिचय नहीं दिया है, किंतु आपकी दो रचनाएँ 'लावण्यसिद्धि पहुतणीगीतम्' और 'सोमसिद्धि निर्वाण गीतम्' से ज्ञात होता है कि आप सोमसिद्धि की शिष्या और लावण्यसिद्धि की प्रशिष्या थीं। रचना की पंक्तियों में लावण्यसिद्धि इनकी गुरणी और सोमसिद्धि सहगुरूणी प्रतीत होती हैं। आपकी दोनों रचनाएँ 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' में नाहटा जी ने प्रकाशित की है। तत्कालीन लिपी अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर में संग्रहित है।"
5.1.97 श्री विमलसिद्धि (संवत् 1662 के लगभग)
आप मुल्तान निवासी माल्हू गोत्रीय साहू जयतसी की पत्नी जुगतादे की कुक्षि से उत्पन्न हुई थीं। लघुवय में ही ब्रह्मचर्यव्रत के धारक अपने पितृव्य गोपाशाह के प्रयत्न से प्रतिबोध पाकर आपने लावण्यसिद्धि के पास प्रव्रज्या अंगीकार की। और बीकानेर में स्वर्गवासिनी हुई। उपाध्याय ललितकीर्तिजी ने स्तूप के अंदर आपके सुंदर चरणों की स्थापना कर प्रतिष्ठा करवाई। साध्वी विवेकसिद्धि ने 'विमलसिद्धि गुरूणी गीतम्' में विमलसिद्धि का उक्त परिचय दिया है। 12 हिंदी जैन साहित्य का इतिहास भा. 3 पृ. 483 पर आपको अठारहवीं सदी की आर्या लिखा है, किंतु आप लावण्यसिद्धि की शिष्या हैं, और उनके स्वर्गवास के समय आप विद्यमान थीं, अत: आपका समय संवत् 1662 के लगभग होना सिद्ध है। 5.1.98 श्री विवेकसिद्धि (संवत् 1662 के लगभग) ___ आपने अपनी गुरूणी की स्तुति में “विमलसिद्धि गुरूणी गीतम्' लिखा। यह रचना आपकी प्रतिभा की प्रतीक है। ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' में यह गीत प्रकाशित है।
5.1.99 श्री कल्याणमाला, स्वरूपमाला (संवत् 1664)
संवत् 1664 फाल्गुन शुक्ला 2 बुधवार को आगरा नगर में श्री विजयदेवसूरि रचित 'शीलप्रकाश रास' की प्रतिलिपि बृहत्खरतरगच्छ के भट्टारक श्री जिनचन्द्रसूरि ने उक्त साध्वियों के पठनार्थ लिखवाकर प्रदान की, ऐसा उल्लेख है। यह प्रति 'नित्यविजय लायब्रेरी चाणस्मा' में संग्रहित है। प्रति संख्या 673 है।14
110. 'नाहटा', ऐति. जैन काव्य संग्रह, पृ. 212-213 111. 'नाहटा', ऐति. जैन काव्य संग्रह, पृ. 210 112. 'नाहटा', ऐति. जै. का. संग्रह, पृ. 422 113. 'नाहटा', ऐ. जै. का. संग्रह, पृ. 66 114. (क) अ. म. शाह, श्री प्रशस्ति संग्रह, पृ. 170 (ख) जैन गुर्जर कविओ, भाग 1, पृ. 314
286
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org