________________
हेतु अर्पित किया, उनसे सम्बन्धित अनेक उल्लेख प्रशस्ति- ग्रंथों और पांडुलिपियों में प्राप्त होते हैं, ऐसी संवत् 1175 से 1928 तक के काल की 80 श्रमणियों का वर्णन भी उक्त अध्याय में समाविष्ट किया गया है।
षष्ठम अध्यायः स्थानकवासी परम्परा
श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियों का वर्णन षष्ठम अध्याय में उपदर्शित हैं। इस परम्परा का प्रारम्भ विक्रम की सोलहवीं शताब्दी से माना जाता है। लुकागच्छ की कतिपय श्रमणियों के नाम संवत् 1615 से 1880 तक की हस्तलिखित प्रतियों में प्राप्त होते हैं। स्थानकवासी परम्परा लोंकागच्छीय यति परम्परा से निकलकर क्रियोद्धार करने वाले छः महान आचार्यों की परम्परा का सम्मिलित रूप है। वे छः आचार्य हैं - आचार्य जीवराज जी, आचार्य लवजीऋषि जी, आचार्य हरिदास जी, आचार्य धर्मसिंह जी, आचार्य धर्मदास जी और आचार्य हरजी स्वामी । उक्त सभी आचायों का काल विक्रम की सत्रहवीं सदी से अठारहवीं सदी का है, किन्तु इनकी श्रमणी - परंपरा का काल प्रायः अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी से ही उपलब्ध होता है। आचार्य श्री जीवराज जी की परम्परा के आचार्य अमरसिंह जी महाराज की परम्परा में अद्यतन 1200 के लगभग श्रमणियों के दीक्षित होने की सूचना प्राप्त होती है, इनकी आद्या साध्वी श्री भागांजी, सद्दांजी थीं, इनका समय संवत् 1810 का है । ये महान विदुषी शास्त्रज्ञा एवं तपस्विनी थीं। प्रवर्तिनी श्री सोहनकंवर जी आगमज्ञान की गहन ज्ञाता, तपस्विनी, सेवामूर्ति व चंदनबाला श्रमणी संघ की प्रथम प्रवर्तिनी थी। श्री शीलवती जी श्री कुसुमवतीजी अनेक धार्मिक संस्थाओं की प्रेरिका, कठोर संयमी महासती थी। श्री पुष्पवतीजी बहुमुखी प्रतिभा की धनी, साहित्यकर्त्री साध्वी अनेक श्रमण- श्रमणियों की उद्बोधिका हैं। श्री जीवराजजी महाराज की नानक की परम्परा में डॉ. ज्ञानलता जी, डॉ. दर्शनलता जी, डॉ. चारित्रलता जी, डॉ. कमलप्रभा जी आदि जैन जैनेत्तर दर्शन की उच्चकोटि की विद्वान साध्वियाँ हैं। जीवराज जी की श्री शीतलदास जी महाराज की परम्परा में प्रवर्तिनी श्री यशकंवर जी मेवाड़सिंह नी के नाम से प्रख्यात हैं। जोगणिया माता पर होने वाली बलिप्रथा को बंद करवाने का अभूतपूर्व कार्य आपने ही किया था ।
T
क्रियोद्धारक श्री लवजी ऋषि जी की महाराष्ट्र परम्परा में संवत् 1810 में विद्यमान शांत स्वभावी राधा जी के नाम का उल्लेख है। इनके शिष्या परिवार में प्रवर्तिनी श्री कुशलकंवरजी ने अनेक स्थानों के नरेशों को व्यसन मुक्त करवाया था। श्री सिरेकंवरजी आत्मार्थिनी साध्वी थी, गुरूजनों के प्रति अविनयसूचक शब्दों का उच्चारण हो जाने पर तत्काल दो उपवास का प्रत्याख्यान कर लेती थी। श्री बड़े सुन्दरजी को आचार्य आनन्दऋषि जी महाराज अपनी शिक्षा प्रदाता गुरूणी कहकर आदर देते थे। प्रवर्तिनी रतनकंवर जी ने राजा चतरसेनजी द्वारा दशहरे के दिन होने वाली भैंसे की बलि को बंद करवाया था तथा अनेक ग्रामों के नरेशों को माँस मदिरा का त्याग करवाया था। श्री आनन्दकंवर जी ने सर्प के विष को महामंत्र के प्रभाव से दूर कर लोगों को जैन धर्म के प्रति आस्थावान बनाया था। प्रवर्तिनी श्री उज्ज्वलकुमारी जी से चर्चा वार्ता कर महात्मा गाँधीजी असीम शांति व आनन्द का अनुभव करते थे, इनकी विद्वत्ता और विषय निरूपण शैली अद्वितीय थी। श्री सुमतिकंवर जी ने महिला समाज की जागृति व उन्नति के अनेक प्रशंसनीय कार्य किये। प्रवर्तिनी श्री प्रमोदसुधा जी समयज्ञा और योग्य सलाहकार विदुषी साध्वी थीं, उन्हें भारतमाता की पदवी से विभूषित किया गया था। आचार्या चंदना जी राजगृही वीरायतर में रहकर अनेक लोकमंगलकारी एवं मानव सेवा के कार्य कर रही हैं, ये एक स्वतन्त्र संघ की संचालिका है। डॉ. धर्मशीला जी सम्पूर्ण जैन समाज की सर्वप्रथम पी. एच.
Jain Education International
(-xxxv)
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org