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________________ स्वकथ्य जैनधर्म एक शुद्ध चिरन्तन और सार्वजनीन धर्म है। इस धर्म ने आत्म-विकास के सम्पूर्ण द्वारों को स्व-पुरुषार्थ से उद्घाटित करने का उद्घोष विश्व के समक्ष रखा। चैतन्य की सर्वतंत्र स्वतन्त्रता का संगान सुनाकर प्रत्युक प्रबुद्ध आत्मा को परमात्मा बनने के लिए उत्प्रेरित किया, इसके लिये न जाति का बंधन है, न उम्र का, न देश का बंधन है, न वेष का। किसी भी जाति, वर्ण, वेष और लिंग का व्यक्ति श्रमण पथ पर आरूढ़ हो सकता है। पथ की योग्यता-अयोग्यता का मापदण्ड मात्र उसका मुमुक्षा भाव है। यही कारण है कि जैनधर्म में प्रत्येक जाति वर्ग के सहस्रों पुरूष जैसे श्रमण मार्ग पर गत्यारूढ़ हुए। उसी प्रकार सहस्रों-सहस्त्र नारियाँ भी संयम के असिधाराव्रत पर चलने के लिए तैयार हुईं। वर्तमान अवसर्पिणी काल में आदियुग की प्रथम शिक्षिका ब्राह्मी से प्रारम्भ कर श्रमणियों की जो धारा श्रमण संस्कृति के मुख को उज्ज्वल-समुज्ज्वल करती हुई प्रवहमान हुई, वह काल की गणनातीत अवधि के पश्चात् आज भी उसी रूप में प्रवाहित होती देखी जाती है। चौबीस तीर्थंकरों की श्रमणी संख्या अड़तालीस लाख आठ सौ सत्तर हजार थी। श्रमण संस्कृति के अंचल में अपने ऊर्जस्वल और तपोमय जीवन से इन पुण्यसलिला श्रमणियों ने सर्वदा गरिमामय इतिहास रचा है, जिसकी झलक हमें आगम और उनकी व्याख्याओं में देखने को मिलती है। उनके धर्म प्रभावना हेतु किये गये कार्य जैन साहित्य, ग्रंथ-प्रशस्तियों तथा शिलालेखों व अन्य ऐतिहासिक अभिलेखों में यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं। यद्यपि अनेक विद्वद् मनीषियों ने श्रमणियों के व्यक्तित्व कृतित्व को लेकर अपनी लोह लेखनी का उपयोग किया है, किन्तु अभी तक कोई ऐसा ग्रंथ उपलब्ध नहीं था जो मात्र श्रमणियों का ही हो और जिसमें समग्र जैन समाज की श्रमणियों का प्रमाणाधारित विवरण कालक्रम से दिया गया हो। आज से लगभग 12 वर्ष पूर्व श्रमणियों का इतिहास लिखने की अभीप्सा से मेरे द्वारा भी 'कालजयी महाश्रमणियाँ' शीर्षक से 300 पृष्ठों का एक सम्पूर्ण अध्याय महासती केसरदेवी गौरव ग्रंथ में प्रकाशित हुआ था, किन्तु उसमें भी प्रामाणिक तथ्य एकत्रित कर समग्रता से प्रस्तुत करने की आवश्यकता मुझे प्रतीत हो रही थी, अतः जैन विश्व भारती संस्थान लाडनूं को अनुसंधान की प्रारम्भिक रूपरेखा लिखकर शोध स्वीकृति हेतु प्रार्थना की, उन्होंने मुझे उक्त विषय पर स्वीकृति ही प्रदान नहीं की वरन् इस विषय की आवश्यकता पर उचित टिप्पणी देकर उत्साहित भी किया, अतः मैं सर्वप्रथम संस्थान का आभार मानती हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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