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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
6.3.1.37 श्री वरजूजी (सं. 1967 से पूर्व)
आपका जन्म मालवा में हुआ। श्री जड़ावकुंवरजी महाराज के पास उत्कृष्ट वैराग्य भाव से आप दीक्षित हुई। आप विदुषी साध्वी थीं, मालवा के छोटे-छोटे प्रान्तों में विचरण कर आपने जिनवाणी की वर्षा की, तथा कइयों के जीवन पवित्र बनाये, आपकी वाणी में माधुर्य-रस झरता था। आपकी शिष्या श्री सिरेकुंवरजी हुईं।
6.3.1.38 श्री सिरेकुंवरजी (सं. 1967 - स्वर्गस्थ)
आपका जन्म निनोर (प्रतापगढ़) के श्री रामलालजी बोहरा के यहां ज्येष्ठ शु. 9 सं. 1958 में हुआ। करीब नौ वर्ष की उम्र में सं. 1967 फालान श. 7 को उज्जैन मे पंडित श्री अमीऋषि जी महाराज एवं पंडिता श्री कासाजी म. की उपस्थित में दीक्षा अंगीकार कर आप श्री वरजू जी म. की शिष्या बनीं। आपने लघुवय में ही दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, नन्दी सूत्र, व सुखविपाक शब्दार्थ सहित कंठस्थ किये। हिंदी, संस्कृत, ऊर्दू भाषाओं का ज्ञान एवं 26 शास्त्रों का वाचन किया। आप स्वभाव से शांत और विनीत थी, व्याख्यान, सरस रोचक व मधुर था। आपकी तीन शिष्याएँ हुईं-श्री गुमानकुंवरजी, श्री हुलासकुंवरजी श्री गुलाबकुंवरजी।64
6.3.1.39 श्री लछमांजी (सं. 1969 - स्वर्गस्थ)
आपका जन्म सं. 1954 में कालूखेड़ा (मालवा) निवासी राजपूत सरदार श्री किशना जी हवलदार के यहां हुआ, 7 वर्ष में विवाह और छह मास की वैधव्य स्थिति में विरक्त होकर आपने सं. 1969 मार्गशीर्ष कृ. 2 के दिन जावरा में श्री चतरकंवरजी के पास दीक्षा ली। आपने संस्कृत, प्राकृत, हिंदी, ऊर्दू, फारसी का अध्ययन किया। शास्त्रीय ज्ञान भी अच्छा था, कंठ मधुर होने से श्रोता मंत्रमुग्ध होकर प्रवचन एवं गीतों का श्रवण करते थे। विविध प्रान्तों में विचरण कर आपने जैनधर्म की प्रभावना की। आपकी एक शिष्या श्री शांतिकुंवरजी धूलिया में दीक्षित
हुईं।
6.3.1.40 श्री अमृतकुंवरजी (सं. 1974-2006)
आप प्रतापगढ़ निवासी मूर्तिपूजक आम्नाय के श्रीमान् बालचंदजी मंडावत की पुत्री थीं। श्री कासाजी म. के संपर्क से वैराग्य का बीज अंकुरित होने पर महावीर जयंति के शुभ दिन सं. 1974 प्रतापगढ़ में श्री कासाजी के श्रीमुख से दीक्षित होकर श्री जड़ावकुंवरजी की शिष्या बनीं। आपका स्वभाव अत्यंत सरल और भद्र था, शास्त्रीय ज्ञान भी अच्छा था, रोचक शैली में आपके प्रवचनों का प्रभाव श्रोताओं पर हृदय-स्पर्शी होता था, मालवा, विदर्भ, खानदेश, मध्यप्रदेश, दक्षिण में आपका अधिक विचरण हुआ, अंत में चैत्र शु. 9 सं. 2006 को मनमाड़ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी 11 शिष्याएँ हुई- श्री कंचनकुंवरजी, श्री राजाजी, श्री सोनाजी, श्री फूलकुंवरजी, श्री केसरजी, श्री चांदकुंवरजी, श्री राधाजी, श्री जयकुंवरजी, श्री अजितकुंवरजी, श्री विमलकुंवरजी, श्री वल्लभकुंवरजी। 63. ऋ. सं. इ., पृ. 299 64. ऋ. सं. इ., पृ. 415 65. ऋ. सं. इ., 416 66. ऋ. सं. इ., पृ. 293
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