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________________ प्रागैतिहासिक काल अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ 2.5.2 पोटिल्ला तेलीपुरनगर के मूषिकारदारक स्वर्णकार की कन्या पोटिल्ला अत्यंत सुंदर व रूपवती थी। राजा कनकरथ के अमात्य तेतलिपुत्र ने उस पर अनुरक्त हो विवाह कर लिया, किंतु कुछ समय पश्चात् ही स्नेह का सूत्र टूट जाने से पोटिल्ला का जीवन विरान सा हो गया, उसकी इस खिन्नता और उदासी को दूर करने के लिये तेतलिपुत्र ने उसे भोजनशाला में इच्छित दानादि कार्य में नियुक्त किया तथापि पोटिल्ला का मन नहीं लगा, अतः उसने सुव्रता आर्या के पास दीक्षा अंगीकार करने की अनुमति मांगी। तेतलिपुत्र ने उसे देवलोक गमन के पश्चात् अपने को प्रतिबोधित करने की शर्त मंजूर करवाकर दीक्षा की आज्ञा प्रदान की । पोटिल्ला ने दीक्षा लेकर 11 अंगों का अध्ययन किया, तप व संयम की आराधना कर वह किसी देवलोक में देव रूप में उत्पन्न हुई। पति को दिये वचन के अनुसार उसने तेतलिपुत्र को जिस प्रकार धर्म की ओर सन्मुख किया, वह उसके अनथक प्रयत्न, लगन एवं जिनधर्म के प्रति आस्था को द्योतित करता है। 148 2.5.3 यशा यह कुरूजनपद में ईषुकार नगर के भृगुपुरोहित की पत्नी थी, पूर्वभव में यह अपने अन्य मित्रों के साथ दीक्षा अंगीकार कर प्रथम स्वर्ग के नलिनीगुल्म विमान से, ईषुकार नगर में उत्पन्न हुई थी, पुत्र के अभाव में रात-दिन शोक मग्न यशा के पास एक दिन प्रथम स्वर्ग के ( पूर्वभव के मित्र) देवों ने आकर संकेत किया कि तुम्हारे एक साथ पुत्र होंगे, बाल्यावस्था में ही धार्मिक संस्कार युक्त होने से वे संयम ग्रहण करना चाहेंगे, तुम उसमें बाधक मत बनना । भृगु एवं यशा ने देवों की बात स्वीकार की। कुछ समय पश्चात् उक्त दोनों देव आयु पूर्ण कर यशा एवं भृगु के घर पैदा हुए। भविष्य की आशंका से कि कहीं दोनों साधु जीवन न अंगीकार कर लें, वे नगर के बाहर कर्पट नाम के छोटे से ग्राम में जाकर रहने लगे, दोनों पुत्रों के मन में भी जैन साधुओं के प्रति भय का भाव पैदा करवा दिया कि वे कभी उनके पास जाने की सोच भी न सके, लेकिन दोनों ने एकबार दो जैन साधुओं की अहिंसक चर्या को प्रत्यक्ष देखा, तो उन्हें जातिस्मरणज्ञान पैदा हो गया वे अपने पूर्वभव को देखकर विरक्त हो गये। भृगु पुरोहित व यशा ने अनेक हेतु व तर्क देकर समझाने का प्रयत्न किया किंतु जब असफल हुए तो वे भी उन दोनों के साथ दीक्षित हो गये। साध्वी यशा ने अनेक वर्षों तक तप-संयम की उत्कृष्ट आराधना की व मोक्ष पद को प्राप्त किया । 149 2.5.4 कमलावती ईषुकार नरेश की रानी कमलावती तत्त्वज्ञा और अनासक्त योग की आराधिका सन्नारी थी । श्रमण दीक्षा अंगीकार करने का दृढ़ संकल्प लेकर भृगु-पुरोहित ने जब अपनी अपार संपत्ति का तिनके की तरह त्याग कर दिया तब उसकी त्यक्त संपति को राजा विशालकीर्ति ने अपने कोष में संग्रहित करने की अनुज्ञा प्रदान की, रानी कमलावती ने उस समय मार्मिक शब्दों से राजा को उद्बोधित किया संसार के तुच्छ व नश्वर भोगों से उपरत होकर निरासक्त और निरापद बनने की प्रेरणा दी 50। रानी के सुभाषित वचनों को श्रवण कर राजा भी प्रतिबुद्ध हुए, रानी कमलावती के साथ संयम 148. (क) ज्ञाताधर्मकथा सूत्र 1/14 (ख) प्राप्रोने. भाग 1 पृ. 418 (ग) आव चू. भाग 1 पृ. 499 149. (क) उत्तरा अध्ययन 14; (ख) उत्तरा शान्त्याचार्य टीका, अ. 14 पत्र 395 150. एको हु धम्मो नरदेव! ताणं, न विज्जए अन्नमिहेह किंचि उत्तरा 14/40 Jain Education International 131 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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