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________________ अभिमत सर्वप्रथम तीर्थ की स्थापना करने के कारण भगवान ऋषभनाथ को आदि तीर्थंकर कहा जाता है। तीर्थ का अर्थ है तैराकर पार कराने वाला। प्रत्येक जीव को भवजलधि पार करना पड़ता है। जो भव्यप्राणी भवसागर को पार करने के लिए तीर्थ की शरण में जाता है वह उसे सरलतापूर्वक पार कर लेता है। जिस प्रकार समुद्र तैरने वाले को नौयान की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार जन्म-मरण के भवसागर को पार करने के लिए प्राणी को तीर्थ की शरण में जाने की आवश्यकता है। जैन धर्म में तीर्थ के चार महत्वपूर्ण आयाम माने गये हैं- (1) श्रमण, ( 2 ) श्रमणी (3) श्रावक, (4) श्राविका । इसे ही चतुर्विध धर्मसंघ कहा जाता है। वह संगठन जो धर्म को समर्पित हो जिसके क्रियाकलाप व्यक्ति तथा समाज के निर्माण में सक्षम व समर्थ हो वह धर्मसंघ कहलाता है। प्रागैतिहासिक काल में प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान ऋषभ ने सर्वप्रथम अपनी दो सुपुत्रियों ब्राह्मी और सुन्दरी को दीक्षित कर श्रमणी - संघ की स्थापना की। उन्होंने ब्राह्मी को अक्षर ज्ञान एवं सुन्दरी को गणित का ज्ञान देकर लोक का बड़ा उपकार किया। तप के बल पर मल्लिनाथ ने तीर्थंकर का गौरवमय पद प्राप्त किया। तीर्थंकर मल्लिनाथ श्रमणीसंघ का गौरव व आत्मबल है। दिगम्बर परम्परा द्वारा भगवान मल्लिनाथ का तीर्थंकरत्व स्त्री रूप में न स्वीकार किये जाने पर भी श्रमणियों के मन में केवली प्रज्ञप्त धर्म में आस्था की बाढ़ है। श्रमणियों द्वारा श्रमणाचार के प्रति इतना अधिक आदर उनकी वैचारिक उदारता एवं संघ में उनकी सुदृढ़ भक्ति का निदर्शन है। जैन धर्म तप व व्रत की मर्यादाओं में मर्यादित, व्यक्ति व्यवस्था, समाज व्यवस्था, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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