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________________ पूर्व पीठिका पर स्त्री को वैराग्य हुआ हो, जहाँ आसपास में साध्वी न हो तो साधु उसे दीक्षा देकर यथाशीघ्र साध्वी को सुपूर्द कर दे, किंतु दीक्षा के नाम पर साधु स्त्री संग या साध्वी पुरूष-संग के दोष की भागी न बने। इसे ध्यान में रखते हुए दीक्षा देने की औपचारिक विधि किसी भी योग्य निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी द्वारा संपन्न की जा सकती है। दीक्षित होने के पश्चात् साध्वी का श्रमणी वर्ग में सम्मिलित होना आवश्यक है। तीर्थंकरों के अभाव में आचार्य भी श्रमणियों को दीक्षा देते हैं। आचार्य सुधर्मा द्वारा जम्बू की आठ पत्नियों एवं उनकी माताओं को दीक्षा देने का वर्णन है। आज भी महिलाओं की दीक्षा विधि आचार्य द्वारा संपन्न कराई जाती है और आचार्य के अभाव में अन्य बहुश्रुती श्रमण भी महिलाओं को दीक्षा प्रदान करते देखे जाते हैं। वर्तमान में स्थानकवासी परम्परा में तो स्थविरा साध्वियाँ भी दीक्षा प्रदान करती हैं। 1.17 जैन श्रमणी दीक्षा - महोत्सव आगम-साहित्य में राजा, राजपुत्रों, राजरानियों एवं श्रेष्ठी वर्ग आदि के दीक्षा महोत्सव का भव्य और आकर्षक वर्णन है। अन्तकृद्दशांग सूत्र में वर्णन है कि पद्मावती देवी के दीक्षा हेतु उद्यत होने पर उसे एक सौ आठ स्वर्ण कलशों से स्नान करवाते हैं। सर्वालंकारों से विभूषित कर सहस्र पुरूषों द्वारा उठाई जाने वाली शिविका पर बिठाते हैं। विशाल एवं भव्य जुलूस द्वारा तीर्थंकर प्रभु के समवसरण में लाकर उसे दीक्षित करने की प्रार्थना करते हैं। प्रभु द्वारा शिष्या भिक्षा स्वीकार किये जाने के पश्चात् पद्मावती देवी उत्तर-पूर्व दिशा ( ईशानकोण) में जाकर - अपने वस्त्रालंकारों को उतार देती है तथा स्वयं ही केशलुञ्चन कर भगवान के चरणों में श्रमणी - दीक्षा प्रदान करने का अनुरोध करती है। तीर्थंकर प्रभु प्रथम स्वयं उसे प्रव्रजित करके प्रमुखा आर्या को सौंपते हैं, पश्चात् प्रमुखा आर्या पुनः उसे प्रवर्जित करती है और संयम में सावधान रहने की शिक्षा देती है । 220 इसी प्रकार अन्य स्त्रियों का दीक्षा महोत्सव भी सामान्य रूप से अपने-अपने घर की स्थिति के अनुसार होता था। दीक्षाओं के सामूहिक आयोजन भी होते थे। ये आयोजन कभी राजाओं की ओर से, कभी धनी श्रेष्ठी वर्ग की ओर से होते थे। भगवान नेमीनाथ के शासन में श्रीकृष्ण द्वारा तथा भगवान महावीर के शासन में सम्राट् श्रेणिक द्वारा ऐसी घोषणाएँ हुई थीं । सामान्य तौर पर हम यह अनुमान कर सकते हैं कि प्राचीन काल में आज की तरह ही कुछ दीक्षाएँ विशिष्ट आयोजन एवं आडम्बर पूर्वक होती होंगी, तो कई दीक्षाएं सादगी पूर्वक ही सम्पन्न हो जाया करती थीं। आगम-ग्रंथों में दीक्षार्थियों द्वारा स्वयं पंचमुष्टि लोच कर दीक्षा के लिये उपस्थित होने के जो उल्लेख हैं, वे आज श्वेताम्बर-परम्परा में प्रायः लुप्त हो चुके हैं, अब नाई को बुलाकर बालों को निकलवा दिया जाता है। प्राचीन पंचमुष्टि लोच की यह प्रथा कबसे लुप्त हुई, यह निश्चित् रूप से तो नहीं कहा जा सकता, पर अनुमान है कि दीक्षार्थी जब स्वयं केश-लोच करने में असमर्थ हुआ होगा तो यह नियम ऐच्छिक बन गया होगा । आज केश-लुञ्चन की अनिवार्यता पंच महाव्रतारोपण के बाद ही समझी जाती है। यद्यपि दिगम्बर परम्परा में आज भी वही परिपाटी दिखाई देती है। 220. अन्तकृद्दशांग सूत्र 5/1 Jain Education International 45 For Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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