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प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ
2.5.9 सुकुमालिका
वाराणसी के राजा वासुदेव के ज्येष्ठ भ्राता जराकुमार का पुत्र जितशत्रु की कन्या सुकुमालिका ने अपने ससअ और भसअ नामक दो भाइयों के साथ दीक्षा ली थी। वह अत्यन्त सुन्दर और नाजुक थी, जब वह भिक्षा के लिए जाती तो कुछ मनचले तरूण उसका पीछा करते थे, और उसकी वसति में घुसे चले आते। यह देखकर गणिनी ने आचार्य से निवेदन किया, आचार्य ने ससअ - भसअ मुनि को साध्वी सुकुमालिका की शील- रक्षा हेतु साध्वियों के उपाश्रय में रखा। यदि एक गोचरी जाता तो दूसरा वहाँ रहता, दोनों ही भ्राता सहस्रमल्ल की शक्ति के धारक होने से जो भी तरूण उपद्रव करता उसे क्षत-विक्षत कर देते थे। इससे कितने ही लोग उनके शत्रु हो गए। सुकुमालिका ने भ्रातृ-अनुकम्पा से अनशन कर लिया, अनशन से अत्यन्त क्षीण होने के कारण एकबार वह मूर्छित हो गई। दोनों भाई उसे मृत समझकर श्मशान में ले जा रहे थे, इसी बीच शीतल वायु के स्पर्श से उसमें चेतना का संचार हुआ, किंतु पुरूष - स्पर्श से कामविह्वल बनी वह चुप रही। दोनों भ्राता उसे एकांत में रखकर गुरू के पास चले गए। सुकुमालिका किसी सार्थवाह के साथ चली गई। पश्चात दोनों भ्राताओं ने इसे पुनः देखा, सर्व घटना पूछी, सुकुमालिका ने पुनः दीक्षा ग्रहण कर आत्मकल्याण किया। 10156
2.5.10 यशभद्रा
यह कुण्डरिक युवराज की पत्नी थी, इसके रूप सौन्दर्य पर मुग्ध होकर ज्येष्ठ भ्राता पुण्डरीक ने अपने भाई कुण्डरीक को मौत के घाट उतार दिया था । यशभद्रा उस समय गर्भवती थी उसके समक्ष शील सुरक्षा और गर्भ सुरक्षा की समस्या आ खड़ी हुई। एक सार्थ का उसने आश्रय लिया, श्रावस्ती में 'कीर्तिमती' आर्यिका के पास उसने संयम ग्रहण किया। कुछ मास पश्चात् यशभद्रा ने एक बालक को जन्म दिया उसका नाम 'खुड्डग कुमार' रखा गया। यशभद्रा संयम तप की उत्कृष्ट साधना कर आराधक पद को प्राप्त हुई। 157
2.5.11 धनश्री
ये बसन्तपुर राजा के राज्य में धनपति और धनावह श्रेष्ठी की बाल-विधवा भगिनी थी, दोनों भाइयों को जब संसार से विरक्ति हुई, तो धनश्री ने भी अपने प्राणप्रिय भ्राताओं के पथ का अनुसरण कर धर्मघोष आचार्य के पास दीक्षा अंगीकार कर ली। मृत्यु प्राप्त कर यह सर्वांङ्ग सुन्दरी के रूप में उत्पन्न हुई। 158
2.5.12 भद्रा
ये तगरानगरी के श्रेष्ठी दत्त की पत्नी एवं अरणक की माता थीं। महामुनि मित्राचार्य ( अर्हन्मित्र) के उपदेश को सुनकर तीनों ने दीक्षा ले ली। जब अरणक स्वयं को संयम के लिये असमर्थ जानकर वहाँ की प्रोषितपतिका (जिसका पति परदेश में था) के कामबाण से विंध गये, तब भद्रा पागल सी होकर गली-गली अरणक-अरणक पुकारती फिरने लगी, वह सबसे अपने बेटे के विषय में पूछती । एक दिन अरणक ने गवाक्ष से अपनी माँ को देखा, 156. (क) निशीथ चूर्णि भाग 2 पृ. 417-18 (ख) निशीथ भाष्य 2951 (ग) बृहत्कल्प भाष्य 5254-7
(घ) प्राप्रोने 2 पृ. 806
157. (क) आव. नि. भाग 2, पृ. 141; (ख) आ. चू. भाग 2 पृ. 191-92 (ग) प्राप्रोने. भाग 1, पृ. 180,281 158. आव. नि. हारि. वृ. भाग 1, पृ. 262-63
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