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________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास तो तुरंत नीचे उतरा,-ममता और श्रद्धा का सुखद मिलन हुआ। माँ ने पुत्र की आत्मा को धिक्कारते हुए कहा-"पुत्र! तूने अपनी सोने की थाली को पीतल की बनाली? इसी जन्म में क्या, अनेक जन्मों में भी तुझे भोगों से तृप्ति नहीं मिली। विचार करके देख कितने जन्मों से तू भोगों से तृप्त नहीं हुआ, क्या अब तुझे तृप्ति मिल जाएगी?" माँ की ममता के स्वर ने अरणिक को पुनः जागृत कर दिया, खोया हुआ आत्मबल और संकल्प पुनः हुंकार उठा। अरणिक ने तपती शिला पर संथारा कर उत्कृष्ट समभाव की आराधना से एक ही दिन में कैवल्यलक्ष्मी को प्राप्त किया। साध्वी माता की ममता आत्म जागृति का कारण बनी, धन्य हो गई वह माँ।'59 2.5.13 मनुमतिका (दासी) उज्जैन के राजा देवलासुत महारानी लोचना की यह दासी थी, राजा देवलासुत और महारानी के दीक्षा लेने पर संगतदास और मनुमतिका दासी ने भी दीक्षा अंगीकार कर ली। राजा-रानी के अनुराग से दास और दासी भी दीक्षित हो गये। मनुमतिका ने संयम तप की आराधना करके आत्मकल्याण किया।'60 2.5.14 लोचना व अर्द्धसंकाशा लोचना उज्जैन के राजा देवलासुत की धर्मनिष्ठा महारानी थी। एक बार राजा के सिर पर श्वेत बाल देखकर उसने महाराज से कहा-'दूत आया है'। राजा के पूछने पर रानी ने यमराज का श्वेत बाल रूप दूत निकालकर राजा को दिखाया इससे राजा प्रतिबद्ध हआ. उसने तत्काल राज्य त्याग कर संन्यास ग्रहण कर लि होती हुई भी राजा के पीछे उसने भी वही मार्ग अपना लिया। जब प्रमुखा साध्वी को इस बात का पता लगा, तो उसने किसी शय्यातरी के यहाँ रानी की व्यवस्था की। बालिका के जन्म के साथ ही रानी स्वर्गवासिनी हो गई। बालिका 'अर्द्धसंकाशा' के नाम से पहचानी जाने लगी। यौवनावस्था प्राप्त होने पर एकबार अर्द्धसंकाशा पिता के आश्रम की ओर गई, उसकी सुंदरता पर मोहित हो राजर्षि काम की याचना करने लगे। पिता की इस अनौचित्य लालसा को देख अर्द्धसंकाशा वहाँ से भाग निकली, वह मन में विचार करती जा रही थी - "धिद्धी इहलोए फलं परलोए न नज्जइ, किं होतित्ति संबुद्धो।62 चिन्तन की गहराई और परिणामों की विशुद्धि से उसे 'अवधिज्ञान' उत्पन्न हो गया, वह किसी संयतिनी साध्वी के पास दीक्षित हो गई उत्कृष्ट तप संयम की आराधना कर वह मोक्ष को प्राप्त हुई। 2.5.15 अज्ञातनामा बृहत्कल्प भाष्य में एक साध्वी का वर्णन आता है उस पर आसक्त होकर उसके पति को ज्येष्ठ भ्राता ने मार दिया। इस घटना से वैराग्य प्राप्त होकर उसने दीक्षा अंगीकार की, उसका पति दु:ख से संतप्त होकर अकाम निर्जरा 159. उत्तराध्ययन नियुक्ति गाथा 92, प्रा. प्रो. ने. भाग 2, पृ. 517 160. आव. नि. हरि. वृ., भा. 2 पृ. 150 161. (क) आव. चू. भा. 2, पृ. 202 (ख) प्राप्रोने. 2, पृ. 658 162. आव. नि. हरि. वृ. भाग 2, गा. 1359 134 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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