________________
प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ
से मरकर व्यंतर जाति के देवों में उत्पन्न हुआ। साध्वी बनी हुई अपनी स्त्री को उसने अनेक तरह से पीड़ित किया । दैवी उपसर्ग को समता भाव से सहन कर उसने आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। 163
2.7.16 राजक्षुल्लिका
जितशत्रु राजा की भगिनी थी। जितशत्रु ने स्थविरों के पास दीक्षा ले ली, गीतार्थ होकर वे पोतनपुर में परतीर्थिकों के साथ वाद-विवाद कर महती जिनशासन प्रभावना कर निर्वाण को प्राप्त हुए। भ्राता के अनुराग से राजक्षुल्लिका भी प्रव्रजित हो गई थी, उसने सुना कि मेरा भाई कालगत हो गया, सुनकर वह क्षिप्तचित्त हो गई, आचार्य ने उसके क्लान्त मन को अनित्य भावना से भावित कर स्थिर किया। 164 राजक्षुल्लिका ज्ञान, दर्शन चारित्र की आराधना से संलग्न होकर आराधक बनीं।
2.5.17 मति
पाण्डुमथुरा के राजा पाण्डुसेन की यह कन्या थी, इसने संयम ग्रहण कर मुक्ति प्राप्त की। जिस स्थान पर इनका निर्वाण हुआ, उस स्थान को लवण समुद्र के देवों ने आलोक व प्रकाश से परिपूरित कर दिया, वह स्थान 'प्रभास' नाम से जाना जाता है। 165
2.5.18 लक्ष्मणार्या
अवसर्पिणी काल की अतीत चौबीसी के चौबीसवें तीर्थंकर की ये साध्वी थीं। एक बार उद्यान में ध्यान लगाकर बैठी थीं कि सामने पक्षी युगल के मैथुन संबंध को देखकर काम वासना से मलिन चित्त वाली हो गई। अपनी साध्वी अवस्था का ध्यान आने पर पश्चाताप हुआ, किंतु लज्जावश गुरूणी से स्पष्ट आलोचना करने के बजाय उनसे काम से ग्रस्त चित्त होने पर क्या प्रायश्चित् आता है, यह जानकारी लेकर उसी प्रकार तप भी किया, तथापि माया रखने से विराधक बनीं। संसारवृद्धि की, भविष्य में मुक्ति प्राप्त करेगी। 166
2.5.19 फल्गुश्री
दुःषम नाम के इस पंचम काल के अंत में होने वाली इस साध्वी का नाम 21 हजार वर्ष तक अमिट रहेगा। यह साध्वी दुःसह नाम के आचार्य की परम्परा में होगी। आचार्य के बारे में उल्लेख है, कि उनका शरीर दो हाथ का आयु 20 वर्ष की होगी, 12 वर्ष की अवस्था में दीक्षा लेंगे। दशवैकालिक ज्ञाता महान श्रुतधर के रूप में प्रतिष्ठित होंगे। 8 वर्ष तक संयम का पालन करेंगे। तेले के तप सहित मृत्यु प्राप्त करके सौधर्म देवलोक में उत्पन्न होंगे। उसी दिन पूर्वाह्न में चारित्र का विच्छेद हो जाएगा। इनके समय में विमलवाहन राजा और सुमुख मंत्री होंगे। अंतिम श्रावक 'नागिल' और 'सत्यश्री' नाम की श्राविका होगी। 107
163. बृहत्कल्प भाष्य भाग 6, गा. 6261, पृ. 1652
164. बंभीय सुंदरी या अन्नाविय जाइ लोगजेट्ठाओ। ताओ वि कालगया, किं पुण सेसाउ अज्जाओ ?
बृहद्कल्प भाष्य - भाग 6, गाथा 6201
165. (क) प्राप्रोने, 2 पृ. 535 (ख) आव. चू. भाग 2, पृ. 157, (ग) आ. नि. 1296
166. महानिशीथ, पृ. 163, दृ. प्राप्रोने. भा. 2 पृ. 650
167. त्रिषष्टि 10/3/46-47
Jain Education International
135
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org