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________________ पूर्व पीठिका चारों पदों का है। प्रवर्तिनी को महत्तरा के रूप में, गणावच्छेदिनी को उपाध्याय के रूप में, अभिषेका को प्रवर्तक के समान तथा प्रतिहारी को स्थविर या रत्नाधिक वृषभ (श्रमण) के समकक्ष माना जा सकता है। ये चारों श्रमणियाँ श्रमण-संघ के अग्रगण्य संघ-स्थविरों की तरह ही ज्ञानादि गुणों से परिपूर्ण एवं प्रभावसम्पन्ना मानी जाती थीं। महत्तरा एवं गणिनी शब्द प्रमुखतः प्रवर्तिनी के लिये प्रयुक्त हुए हैं। क्षुल्लिका एवं भिक्षुणी ये श्रमणी की विकसित अवस्था के दो प्रकार हैं। बृहद्कल्प भाष्य में श्रमणी-संघ का क्रम इस प्रकार दिया है पवत्तिणी अभिसेगपत्ता थेरी तह भिक्खुणी य खुड्डी य। गहणं तासिं इणमो, संजोगकम तु वोच्छामि।।193 इस प्रकार संघ की समुचित व्यवस्था हेतु उक्त पदों की आवश्यकता समझी गई थी, इनमें से कुछ पदों की प्रासंगिकता एवं महत्ता आज भी बराबर है। 1.15.2 दिगम्बर आर्यिका संघ दिगम्बर जैन आर्यिका संघ की आंतरिक व्यवस्था के संबंध में दिगम्बर ग्रंथों में विशेष उल्लेख नहीं मिलता। मात्र अर्यिकाओं के समाचार (आचार-विचार) वर्णन के प्रसंग में प्रमुख आर्यिका का गणिनी या महत्तरिका एवं स्थविरा का वृद्धा आर्यिका के रूप में उल्लेख है। वैसे प्राचीन काल में आर्यिका संघ बड़ा ही सुव्यवस्थित एवं सुसंगठित था। वृद्धा, तरूणी आदि सभी उम्र की आर्यिकाएँ परस्पर एक-दूसरे के सहयोग की भावना के साथ अपने विशुद्ध आचार के पालन, तपश्चरण, शास्त्राध्ययन एवं मनन-चिंतन में सदा लीन रहती थीं। किंतु संघ-व्यवस्था में आर्यिकाओं के लिये 'गणिणी' और 'महत्तरा' के अतिरिक्त अन्य भी कोई पद थे या नहीं उनकी योग्यता एवं आवश्यक कर्त्तव्य क्या थे, इस विषय की कोई भी सूचना उपलब्ध नहीं होती। श्वेताम्बर परम्परा की तरह दिगम्बर-परम्परा में गणिणी पद पर अधिष्ठित होने के लिये योग्यता का क्या मापदण्ड था। इसका उल्लेख भी प्राप्त नहीं होता। तथापि गणिणी एवं थेरी ये दो पद अत्यन्त उत्तरदायित्व पूर्ण होने से सहज ही यह अनुमान लगता है, कि वे संघ के सभी नियमों की जानकार एवं प्रशासनिक योग्यता में अत्यन्त निपुण, धीर, गम्भीर एवं चिरप्रव्रजिता श्रमणी होती थीं तथा आर्यिका-संघ का सुचारू संचालन आचार्य के निर्देशानुसार करती थीं। मूलाचार में (दिगम्बर-परम्परा की) आर्यिकाओं की संघ व्यवस्था के लिये एक 'गणधर' की नियुक्ति मानी है, जो आर्यिकाओं की प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं को कराता था एवं उन्हें प्रायश्चित् आदि भी प्रदान करता था। ऐसे मर्यादोपदेशक गणधर पद के योग्य वही मुनि होता था, जो प्रियधर्म (क्षमा आदि गुणों से युक्त) दृढ़ धर्म (धर्म में स्थिर), संवेग भाव से युक्त परिशुद्ध आचरण वाला, शिष्यों के संग्रह और अनुग्रह में कुशल एवं पाप-क्रियाओं से निवृत्त हो। वह गंभीर, दुर्धर्ष (अडोल स्थिर चित्तवाला) मितवादी, अल्पकुतुहली, चिरप्रवर्जित और गृहीतार्थ (आचार-प्रायश्चित् आदि नियमों का ज्ञाता) होता था। 94 193. (क) बृहद्कल्प भाष्य गा. 4339, (ख) व्यवहार भाष्य 1/724 194. पियधम्मो दढधम्मो संविग्गोऽवज्जभीरू परिसुद्धो। संगहणुग्गह कुसलो, सददं सारक्खणा जुत्तो।। गंभीरो दुद्धरिसो मिदवादी अप्पकोदुहल्लो य। चिरपव्वइदो गिहिदत्थो अज्जाणं गणधरो होदि॥ - मूलाचार, 4/183-184 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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