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________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ चन्नणांजी (सं. 1866), श्री चतरु जी (सं. 1866), श्री नगांजी (सं. 1869), श्री दीपांजी (सं. 1872), आपने 12 वर्ष के साधनाकाल में शीत व गर्मी के परीषह को सहन किया, उपवास, बेले और 12 दिन तक की तपस्या भी की। आप 'लावा' में स्वर्गस्थ हुईं। 7.4.2 श्री हस्तूजी 'छोटा' पीपाड़ (सं. 1862-96 ) 2/3 आप प्रकृति से शांत, सुखदायिनी व तपस्विनी साध्वी हुईं, उपवास से लेकर नौ दिन की क्रमबद्ध तपस्या की, अंत में अपूर्व वैराग्य के साथ संलेखना तप प्रारंभ किया जो लगभग 1 वर्ष तक चला, उसमें 92 चौविहारी बेले, 4 तेले 25 उपवास किये, पारणे के दिन विगय का परिहार किया, पश्चात् दो दिन के अनशन के साथ 'कंटालिया' में पंडितमरण प्राप्त किया। 7.4.3 श्री चन्नणांजी 'बड़ी खाटू' (सं. 1866-96) 2/8 आप बाजोली निवासी जगरूपजी बाफना की पुत्री व 'खाटू' के सूरजमलजी बरमेचा की पत्नी थीं, बाल्यावस्था में ही पति का स्वर्गवास हो जाने पर 17 वर्ष की उम्र में श्री आसूजी से चारित्र अंगीकार किया। आप जैनागमों की गूढ़ अध्येता थीं, हजारों पद्य कंठाग्र थे, आवाज बुलंद थी, व्याख्यान की छटा निराली थी, बड़ी निर्मल, सौम्य, बुद्धिमती और जिनशासन की शोभा बढ़ाने वाली थीं। कंटालिया में पोष कृ. 9 को चार प्रहर के अनशन के साथ पंडितमरण को प्राप्त हुई । श्रावकों ने 25 खंडी मंडी बनाकर उनका चरमोत्सव मनाया। 7.4.4 श्री चत्रूजी 'बड़ा' बाजोली (सं. 1866-1914) 2/9 श्री चत्रूजी ने पतिवियोग के बाद श्री आशूजी से दीक्षा स्वीकार की। आपने तीस सूत्रों का वाचन और गहन अध्ययन किया, तत्वचर्चा में कुशल थीं, स्व- परमती लोगों में आपकी विद्वत्ता का बड़ा प्रभाव था आप साधु क्रिया जागृत कुशल, साहसी और निर्भीक साध्वी के रूप में प्रसिद्ध हुई । प्रकृति में कठोरता और वाणी में स्पष्टता झलकती थी, कई बहनें आपसे प्रतिबुद्ध होकर दीक्षित हुईं, वे इस प्रकार हैं- श्री झुमाजी (सं. 1881), श्री चांदूजी (सं. 1881 ), श्री सिणगारांजी (सं. 1887 ), श्री किस्तूरांजी (सं. 1888), श्री तुलछांजी (सं. 1888 ), श्री कुन्नणांजी (सं. 1888), श्री वरजू जी (सं. 1891 ), श्री लिछमांजी (सं. 1892), श्री गुलाबांजी (सं. 1897), श्री तीजांजी (सं. 1900), श्री चांदूजी (सं. 1906), श्री ज्ञानांजी (सं. 1910 ) । आप स्वयं की साधना में भी कठोर थीं, उपवास, बेलों के साथ तीन बार 16 का तप, प्रतिवर्ष दस प्रत्याख्यान, बहुत वर्षों तक 5 विगय वर्जन, 30 वर्षों तक सर्दी में एक पछेवड़ी आदि नियमों का पालन पूर्ण दृढ़ता के साथ किया अंत में आपका राजनगर विराजना हुआ, वहां पोष शु. 4 सं. 1914 के दिन संथारे के साथ दिवंगत हुईं। 7.4.5 श्री चनूजी 'छोटा' तोसीणा (सं. 1868-1913) 2/14 आप नाहर परिवार से संबंधित थीं, पति से आज्ञा लेकर दीक्षा अंगीकार की। आप निर्मल चारित्र की धनी, गुरु व संघ के प्रति निष्ठाशील, भद्रप्रकृति की समताभाविनी साध्वी थीं। आपके द्वारा चार साध्वियों को दीक्षा देने का उल्लेख प्राप्त होता है- श्री सिणगारां (सं. 1879), श्री हस्तूजी (सं. 1899), श्री जीऊजी (सं. 1905), श्री सिरदारां जी । Jain Education International 809 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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