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7.4.6 श्री रंभाजी 'पीसांगण' (सं. 1868-1915) 2/16
आप कालू कुडकी के मोतीलालजी सरावगी की पुत्री और खींवराज जी गंगवाल की पुत्रवधू थीं । पतिवियोग के पश्चात् 24 वर्ष की वय में दीक्षित हुईं। आप साधुचर्या में सजग, प्रकृति से भद्र, विनयवान साध्वी थीं, आप बड़ी तपस्विनी भी थीं, लगातार सावन भादवा में एकांतर तप, बेले, तेले और 11 तक की तपस्या कई बार की, 12 से 15 तक का तप एकबार किया, शीतऋतु में आप एक ही पछेवड़ी का उपयोग करती थीं। वाहला ग्राम में ज्येष्ठ शु. 1 को आप स्वर्गस्थ हुईं।
7.4.7 श्री कल्लूजी 'रोयट' (सं. 1869-87
2/18
आप तेरापंथ संघ के क्रांतिकारी महाप्रभावक श्री जयाचार्य जी की मातेश्वरी थीं । पतिवियोग के पश्चात् आपने व आपके तीनों सुपुत्रों - श्री स्वरूपचंदजी, श्री भीमजी और श्री जीतमलजी ने दीक्षा अंगीकार की। आप आकृति से सौम्य, कार्य में कुशल, गंभीर, विनयवान एवं वैराग्यशीला थीं। आपने 17 वर्ष के संयमी जीवन में पचोला, अठाई, पन्द्रह, सत्रह, बीस, पच्चीस का तप एक-एक बार और 5 मासखमण किये। अंतिम समय संलेखना काल में सात उपवास, आठ बेले, 50 तेले, एक अठाई, एक 11, एक मासखमण, साढ़े तीन महीने एकांतर एवं ऊनोदरी तप किया। सं. 1887 श्रावण शु. 13 के दिन 'खेरवा' में समाधिपूर्वक देह का त्याग किया। श्री जयाचार्य ने उनके गुणों का वर्णन आठ गीतिकाओं द्वारा किया है।
जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
7.4.8 श्री नगांजी 'बोरावड़' (सं. 1869-1901) 2/20
आपने पतिवियोग के पश्चात् 'बागोट' में आषाढ़ शुक्ला 5 को दीक्षा ग्रहण की। आप हृदय से सरल, प्रकृति से भद्र, , विनय और विवेकशील थीं। आपने 11 तक लड़ीबद्ध तपस्या, दो बार तेरह, एक बार 20 दिन का तप किया। 17 वर्षों तक दो पछेवड़ी और 13 वर्षों तक एक पछेवड़ी ग्रहण की। श्रावण शु. 15 को सबलपुर में सागारी अनशन से समाधिमरण को प्राप्त हुईं।
7.4.9 प्रमुख स्थानीया श्री दीपांजी 'जोजावर' (सं. 1872-1918) 2/34
आप मेवाड़ के ताल ग्राम में मांडोत गोत्रीय परिवार की आत्मजा व जोजावर निवासी सोमासाह बम्ब की पत्नी थीं । पतिवियोग के पश्चात् 16 वर्ष की वय में दीक्षा ग्रहण की। आपकी बुद्धि बड़ी प्रखर थी, 32 शास्त्रों का गहराई से अध्ययन किया। कंठकला, वचन - मधुरता, बुलन्द आवाज एवं आत्मिक पौरुष से दिये गये आपके उपदेशों का प्रभाव जनता पर स्थायी रूप से पड़ता, आपका व्याख्यान श्रवण करने के लिये अनेक गांवों के ठाकुर, मुसद्दी, हाकिम आदि आते गांव-गांव में आपकी बड़ी ख्याति थी। शारीरिक संस्थान एवं बहुमुखी व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली था । तेरापंथ धर्मसंघ में आप एक उच्चकोटि की साध्वी हुईं। आचार्य रायचंदजी के समय आप विशेष सम्मानित प्रमुखा साध्वी थीं। आपने ऋषिराय के तथा जयाचार्य के शासनकाल में अनेक व्यक्तियों को सुलभबोधि बनाया, श्रावक के व्रत धारण करवाये, तथा 10 बहनों को संयम प्रदान किया। श्री मोतांजी (सं. 1887 ), श्री राभूजी (सं. 1902), श्री ज्ञानांजी (सं. 1902), श्री सुन्दरजी (सं. 1907), श्री जोतांजी (सं. 1908), श्री नाथांजी (सं. 1908), श्री झुमांजी (सं. 1908), श्री वखतावरजी (सं. 1916), श्री चम्पाजी (सं. 1917), श्री किस्तूरांजी (सं. 1917) | ऐसा भी
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