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स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ
लिंबड़ी अजरामर सम्प्रदाय में और भी विदुषी श्रमणियाँ हुई हैं, उनका परिचय तालिका में दिया गया है। 6.5.2 लींबड़ी गोपाल संप्रदाय की श्रमणियाँ
लीबड़ी संप्रदाय के पंचम पट्टधर श्री अजरामर स्वामी के पश्चात् छठे पट्टधर पूज्य देवजी स्वामी हुए। अनके समय में श्री अजरामरजी स्वामी के शिष्य श्री देवराजजी स्वामी के प्रशिष्य श्री हेमचन्द्र स्वामी ने अपने शिष्य गोपालजी स्वामी को साथ लेकर लींबड़ी गोपाल संप्रदाय की स्थापना की।269
इस संप्रदाय की साध्वियों का इतिहास श्री हेमकुंवरबाई से प्रारम्भ होता है, हेमकुंवरबाई की दो शिष्याएँ थीं-पूरीबाई व कंकूबाई। पूरीबाई की शिष्या रामबाई उनकी श्री अंबाबाई थीं। पूरीबाई की द्वितीय शिष्या श्री कुंवरबाई उनकी उजमबाई, जवलबाई, पुरीबाई, दिवालीबाई, लेरीबाई व मणीबाई थीं, मणिबाई की श्री मोंघीबाई शिष्या थीं। श्री कंकूबाई की प्रथम शाखा में श्री हीराबाई, शीवबाई, सुंदरबाई धनीबाई व उनकी शिष्या चंचलबाई थीं। दूसरी शाखा में श्री पारवतीबाई थीं, उनकी शिष्याएँ-श्री संतोकबाई, दो (मोटा, नाना) श्री जीवकोरबाई, झकलबाई, रंभाबाई, रतनबाई, मणीबाई, चंदनबाई इनकी शिष्या दयाबाई हुईं। श्री कंकूबाई की तृतीय शाखा में बा. ब्र. श्री सूरजबाई हुईं, उनकी शिष्या श्री दिवालीबाई थीं, इनकी 5 शिष्याएँ थीं-श्री सुंदरबाई, झवेरबाई, झबकबाई, पार्वतीबाई एवं परम विदुषी श्री लीलावती बाई।270
6.5.2.1 आर्या श्री लीलावतीबाई (सं. 1992-2039) ___गोपाल लिंबड़ी सम्प्रदाय की सर्व प्रतिष्ठित प्रभावशालिनी क्रियानिष्ठ महासती लीलावतीबाई का जन्म 'रंगून' शहर में सं. 1975 मृगशिर शु. 13 को हुआ। पिता का नाम श्री वीरचंद भाई था। श्री लीलावतीबाई ने वांकानेर (सौराष्ट्र) में विदुषी श्री दिवालीबाई के दर्शन किये, पूर्वभव के संस्कार उदय में आते ही दीक्षा लेने का पक्का निर्णय किया और ज्येष्ठ शु. 11 सं. 1992 में पूज्य श्री मणिलालजी महाराज के मुख से दीक्षा का पाठ पढ़कर श्री दिवालीबाई की शिष्या बनीं। मात्र ढाई वर्ष की दीक्षा-पर्याय में गुरूणी से वियोग होने पर आपने प्रवचन देना प्रारंभ किया, आपके प्रवचनों का प्रभाव जनता पर इस प्रकार पड़ने लगा कि थानगढ़ (सौ.) में आपको एक दिन और रोकने के लिये छह व्यक्तियों ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया। आपको तप के प्रति भी अत्यंत अहोभाव था, एकासना, उपवास, छठ, अट्ठम तो आप करते ही, साथ ही एकांतर वर्षीतप, मुक्तावली तप, अठाई, नवाई, 18 उपवास बेले-तेले वर्षीतप आदि का आराधना भी की। आपका शासन प्रेम, वात्सल्य चारित्र निष्ठा, संप्रदाय संचालन की कला कुशलता आदि गुणों से आकर्षित होकर आपके जीवन काल में 73 बहनों ने प्रव्रज्या का मार्ग स्वीकार किया। ये सभी बहनें बालब्रह्मचारिणी हैं। आपने अपने शिष्या परिवार को एक कुशल शिल्पी के समान गढ़ा, अनेक शिष्याएँ तपस्विनी हैं तथा आगम की गहन अध्येता हैं, बत्तीस शास्त्रों को मुखपाठ कर कीर्तिमान स्थपित करने वाली साध्वी भी आपके संघ में मौजूद हैं। कठोर चारित्र पालन की हिमायती तथा निर्भीक प्रवृत्ति की होने से आप "सौराष्ट्र सिंहनी' के नाम से पहचानी जाती थीं। आप अपनी सिद्धान्त दृढ़ता, अध्यात्मनिष्ठा के कारण सर्वत्र समादरणीया बनीं। सुरेन्द्रनगर में संवत् 2039 जेठ कृष्णा सप्तमी शनिवार को आप
269. स्था. जैन परंपरा का इतिहास, पृ. 301 270. श्री स्था. जैन लींबड़ी संघवी संप्रदाय नो साध्वी कल्पद्रुम, पुस्तक-विश्रांति नो वडलो, खंड-3, पृ. 233-72
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