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________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.5.1.2 प्रवर्तिनी श्री काशीबाई (सं. 1740-48) आप श्री सुजाणबाई की शिष्या थीं, उनके स्वर्गवास के बाद आप संवत् 1740 पौष शुक्ला 5 को आचार्य श्री धर्मदासजी महाराज द्वारा प्रवर्तिनी पद पर प्रतिष्ठित की गईं, श्रावण कृष्णा 2 संवत् 1748 में आपका स्वर्गवास हुआ।243 6.5.1.3 प्रवर्तिनी श्री चंदनबाई (सं. 1748-57) श्री काशीबाई की शिष्या श्री चंदनबाई थीं, आचार्यश्री धर्मदास महाराज ने श्री काशीबाई के स्वर्गवास के पश्चात् मृगशिर शुक्ला 13 संवत् 1748 में आपको प्रवर्तिनी पद प्रदान किया, संवत् 1757 कार्तिक कृष्णा नवमी को आप स्वर्गस्थ हुईं।244 6.5.1.4 प्रवर्तिनी श्री समजूबाई (सं. 1758-1774) आपश्री चंदनबाई की शिष्या थीं, श्री चंदनबाई के स्वर्गवास के पश्चात् माघ शुक्ला द्वितीया रतलाम (मालवा) संवत् 1758 में आप प्रवर्तिनी बनीं। आपका प्रवर्तिनी पद भी आचार्य धर्मदासजी महाराज के मुखारविंद से दिया गया था। चैत्र कृष्णा अष्टमी संवत् 1774 में आपका स्वर्गवास हुआ।245 6.5.1.5 प्रवर्तिनी श्री धीरजबाई (सं. 1775-1810) आप संवत् 1775 वैशाख शुक्ला 15 को पूज्य श्री मूलचन्द्रजी महाराज द्वारा प्रवर्तिनी पद पर नियुक्त हुईं, आपकी स्वर्गवास तिथि संवत् 1810 आश्विन कृष्णा 1 है। श्री धीरजबाई के स्वर्गवास के पश्चात् प्रवर्तिनी पद की परम्परा नहीं चली, मात्र प्रमुखा साध्वी के रूप में उनकी शिष्या श्री जेठीबाई (मोटा) हुईं, उनकी सुशिष्या श्री कुंकुबाई (श्री अजरामरजी महाराज की मातेश्वरी) आदि साध्वियाँ हुईं, जो आचार्य मूलचन्द्रजी स्वामी के पाटानुपाट पूज्य श्री हीराजी स्वामी (सं. 1833-1841) की आज्ञा में सौराष्ट्र तथा गुजरात में विचरण करती थीं।246 6.5.1.6 आर्या कुंकुबाई (सं. 1819 - ) आप लींबड़ी सम्प्रदाय के शासनोद्धारक आचार्य श्री अजरामरजी महाराज की मातेश्वरी एवं जिला जामनगर ग्राम पडाणा के श्री माणिकचंद भाई शाह की पत्नी थीं। आप अत्यंत धर्मनिष्ठ नारी-रत्ना थीं, प्रतिदिन सामायिक, प्रतिक्रमण आदि नित्य नियम उच्चारण पूर्वक करती थीं। आपकी धर्मनिष्ठा का ही प्रभाव था कि पांच वर्ष की उम्र में ही बालक अजरामर ने माता द्वारा किये गये प्रतिक्रमण को सुन-सुनकर याद कर लिया था। वि. सं. 1819 माघ शु. 5 को पूज्य श्री हीराजी स्वामी के सान्निध्य में माता-पुत्र दोनों ने दीक्षा ग्रहण की, अजरामरजी कानजी स्वामी के शिष्य बने तथा कुंकुबाई श्री जेठीबाई आर्या की शिष्या बनीं। आपके स्वर्गवास की तिथि अज्ञात है। अजरामर मुनि बड़े ही उच्चकोटि के तपस्वी तथा सद्गुणों की खान थे। लिम्बड़ी में आप पांचवें गादीपती आचार्य के रूप में ख्याति प्राप्त हैं। वर्तमान में लिम्बड़ी संप्रदाय 'श्री अजरामरजी महाराज की संप्रदाय' के रूप में प्रसिद्ध है।247 6.5.1.7 श्री जेठीबाई, श्री मोंघीबाई (सं. 1869- ) आचार्य अजरामरजी महाराज ने वि. सं. 1869 कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी के दिन कच्छ की श्री जेठीबाई एवं । 243-246. अजरामर विरासत, पृ. 154 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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