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________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ बात सुनी तो उन्होंने एक पत्र लिखा। उनके पत्र के प्रभाव से आपको दीक्षा की आज्ञा प्राप्त हुई। आपने 15 वर्ष की उम्र में पति एवं पुत्र का मोह छोड़कर आचार्य भिक्षु के चरणों में दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा संवत् 1848 तथा संथारा संवत् 1857 में होने का उल्लेख प्राप्त होता है। 7.3.12 प्रमुख स्थानीया श्री बरजूजी (सं. 1852-88) 1/39 आप पादू (मारवाड़) की निवासिनी थी, पति के स्वर्गवास के पश्चात् आपकी दीक्षा संवत् 1852 में आचार्य भिक्षु द्वारा ही संपन्न हुई थी। आप धर्मप्रभाविका साध्वी थीं, श्रीरायचन्द्रजी और उनकी माता खुशाला जी को आपके उपदेश से ही संयम लेने की भावना जागृत हुई। संघ को आपकी यह महत्त्वपूर्ण उपलब्धि रही। इसी प्रकार साध्वी कुशालांजी, नाथांजी, बीजांजी आदि अनेक साध्वियों ने आपसे शिक्षा प्राप्त कर संघ में यशकीर्ति अर्जित की। आपकी प्रेरणा से ही तपस्विनी एवं प्रभावशालिनी साध्वी कमलजी, मयाजी आदि भी दीक्षित हुई थी। आपके प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं गुणों के कारण आप साध्वियों में प्रमुख स्थानीया के रूप में सम्माननीय थीं। आपका अवसान काल 1887 या 1888 का माना जाता है। 7.3.13 श्री बीजांजी (सं. 1852-87) 1/40 आप रीयां (मारवाड़) निवासिनी थीं। पतिवियोग के पश्चात् संवत् 1852 पादू (मारवाड़) में सती बरजू और बनाजी के साथ आपकी दीक्षा भिक्षु स्वामी द्वारा हुई थी। आप बड़ी ही सरल और भद्र प्रकृति की साध्वी थी। संघ में आपने अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया हुआ था, अनेक लोग आपकी वाणी से प्रतिबुद्ध हुए। आप उग्र तपस्विनी थीं, जीवन के अंतिम तीन वर्षों में आपने 763 दिन की चौविहारी तपस्या की। पारणे में भी अरस, विरस आहार का सेवन किया। 25 दिन ऊनोदरी करके फिर संथारा लिया। 9 दिन का संथारा पूर्ण कर संवत् 1887 को कंटालिया ग्राम में आपका स्वर्गवास हुआ। 7.3.14 श्री हस्तूजी, श्री कस्तूजी (सं. 1857-76) 1/45, 47 आपके पिता जगु गांधी पीपाड़ (मारवाड़) के निवासी थे, माता का नाम बदूजी था। कस्तूजी छोटी बहन थीं, दोनों अत्यंत रूपवती थीं, दोनों पीपाड़ के एक ही मुंहता परिवार में ब्याही गईं। हस्तूजी ने अनेक कष्ट सहन कर ससुराल वालों से दीक्षा की आज्ञा प्राप्त की, उन्होंने पति, दो पुत्र (एक 6 वर्ष का, दूसरा 16 मास का) छोड़कर सं. 1857 पीपाड़ में अपनी छोटी बहन कस्तूजी के साथ दीक्षा ग्रहण की। दोनों ही बहनें ज्ञानवान, गुणवान एवं चारित्रनिष्ठ थी। हस्तूजी ने शीतकाल में 12 वर्षों तक केवल एक चादर से काम चलाया। अंत में 1876 में डेढ़ प्रहर के संथारे के साथ उनका स्वर्गवास हुआ। साध्वी कस्तूजी का भी सवा प्रहर के लगभग संथारा सहित संवत् 1876 में ही स्वर्गवास हुआ, ऐसा उल्लेख है। ये दोनों भगिनियां पृथक्-पृथक् सिंघाड़े की अग्रणी होने पर भी साथ ही साथ रहती थी। इनकी जोड़ी विवाह, दीक्षा एवं स्वर्गवास तक बरकरार रही। 'हस्तूजी कस्तूजी का पंचढालिया' में दोनों का संपूर्ण जीवन-वृत्त अंकित है। 2. वही, पृ. 642, 659. 807 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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