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अध्याय 7
तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ
7.1 तेरापंथ संघ की स्थापना
तेरापंथ धर्मसंघ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु थे, ये स्थानकवासी परम्परा के क्रान्तदृष्टा महामनस्वी आचार्य श्री जीवराजजी महाराज की परम्परा के आचार्य श्री रघुनाथजी महाराज के शिष्य थे, कुछ वैचारिक मतभेद के कारण वी. नि. 2287 (वि.सं. 1817 ) चैत्र शुक्ला नवमी के दिन अपने चार साथियों के साथ संबंध विच्छेद कर संघ से पृथक् हो गए, इसी वर्ष 'केलवा' (मेवाड़) में आसाढ़ शुक्ला पूर्णमासी के दिन अपने साथियों के साथ भावदीक्षा अंगीकार कर एक पृथक् संप्रदाय की नींव रखी। साधु और श्रावकों की तेरह की संख्या से ये 'तेरापंथ' के नाम से प्रसिद्ध हुए। तेरह साधुओं द्वारा स्वीकृत दीक्षा के उपक्रम में सबसे प्रमुख थे- श्री भिक्षुजी, वे ही तेरापंथ - संघ के प्रथम आचार्य के रूप में मनोनीत हुए, उनके पश्चात् उनकी शिष्य उत्तराधिकारी परम्परा में क्रमशः श्री भारमलजी आदि आठ आचार्य और हुए, जिन्होंने तेरापंथ संघ को समुचित संरक्षण प्रदान किया, वर्तमान में दशम आचार्य श्री महाप्रज्ञजी एवं युवाचार्य श्री महाश्रमणजी के निर्देशन में तेरापंथ धर्म शासन बहुमुखी विकास कर रहा है। एक आचार्य का नेतृत्व, मौलिक आचार की एकरूपता एवं अनुशासित जीवन शैली तेरापंथ संघ की अपनी विशेषता है।
7.2 तेरापंथ संघ की श्रमणियाँ
तेरापंथ-संघ की स्थापना के पश्चात् चार वर्ष तक यह संघ श्रमणी - विहीन था, किसी व्यक्ति ने कहा- 'भिक्षुजी ! तुम्हारे संघ में तीन ही तीर्थ है।' भिक्षुजी बोले - " मोदक खंडित है, पर शुद्ध सामग्री से बना है। " संयोग से उसी वर्ष वि. सं. 1821 में तीन बहनें दीक्षित होने हेतु आचार्य भिक्षु के समक्ष उपस्थित हुईं, आचार्य भिक्षु ने उनकी योग्यता देखकर दीक्षा प्रदान की, यहीं से तेरापंथ श्रमणी संघ का इतिहास प्रारम्भ होता है, तब से लेकर संवत् 2063 अर्थात् 242 वर्षों की सुदीर्घ अवधि में कुल 1719 श्रमणियाँ दीक्षित हुईं, उन्हें आचार्यों के कालक्रमानुसार निम्न तालिका में देखा जा सकता है
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