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________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ- परम्परा की श्रमणियाँ ये चौबीस ही प्रमुख शिष्याएँ तीर्थंकरों के धर्मप्रवर्तन के प्रथम दिन प्रथम उपदेश से प्रबुद्ध होकर प्रव्रज्या अंगीकर कर लेती हैं। ये सभी उत्तम कुल वाली, विशुद्ध वंश वाली एवं अनेक गुणों से अलंकृत होती हैं ।" तीर्थंकर का अतिशय तो होता ही है साथ ही श्रमणी - प्रमुखा का दिव्य उर्जस्वी प्रभाव भी महिलावर्ग पर पड़ता है, यही कारण है कि उनकी प्रव्रज्या के तुरन्त पश्चात् नारियों की दीक्षा का प्रवाह सा उमड़ पड़ता है, अनेकों महिलाएँ रमणी श्रमणी बनने को आतुर हो उठती हैं। स्त्री जाति में आध्यात्मिक जागरण की लहर पैदा करने वाली श्रमणी - प्रमुखा श्रमणी - संघ में गणधर तुल्य अतिशय से सम्पन्न होती हैं। तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट 11 अंगों का ज्ञान वे अपनी व्युत्पन्न बुद्धि एवं क्षिप्रग्राही लब्धि से प्रथम बार में ही अर्जित कर लेती हैं। लक्षाधिक साध्वियों का नेतृत्व वे अकेली करने की क्षमता रखती हैं, उनसे हजारों-हजार साध्वियाँ एकादशांगी का ज्ञान प्राप्त कर श्रुतसंपन्ना एवं आचार संपन्ना बनती हैं। ध्यान, स्वाध्याय, योग एवं कठोर तपश्चरण द्वारा स्वात्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है। हजारों श्रमणियाँ उनके निर्देशन में आत्मसाधना करती हुईं निर्वाण को प्राप्त होती हैं, हजारों एकाभवतारी बनती हैं। वे स्वयं भी वर्धमान परिणामों से कर्म कालुष्य को धोकर अंत में कैवल्य लक्ष्मी को प्राप्त करती हैं। ऋषभदेव से अर्हत् पार्श्व के काल तक की जैन श्रमणियों में प्रत्येक तीर्थंकर की प्रमुखा श्रमणियों के अतिरिक्त अन्य श्रमणियों के उल्लेख भी आगम ग्रंथों में उपलब्ध होते हैं जो उस-उस तीर्थंकर के काल में हुई थी। उनमें कतिपय श्रमणियों के उल्लेख श्वेताम्बर ग्रंथों में तथा कतिपय श्रमणियाँ दिगम्बर-ग्रंथों में उल्लिखित हैं, यहां दोनों परम्पराओं की श्रमणियों का प्रमाण पुरस्सर वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है। 2.3.1 ब्राह्मी जैनधर्म की साध्वियों में ब्राह्मी और सुंदरी का नाम शीर्षस्थ स्थान पर है। वर्तमान अवसर्पिणी काल की प्रथम साध्वी ब्राह्मी भगवान ऋषभदेव की सुपुत्री तथा सुमंगला (ऋषभदेव की सहजात) की अंगजात कन्या थी। प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरत ब्राह्मी के सहजात भ्राता थे। बुद्धि एवं गुणों में अभिवृद्धि करने वाली अनेक कलाओं की शिक्षा ब्राह्मी ने अपने पिता ऋषभदेव से प्राप्त की थी। वर्णमाला का प्रथम बोध पाठ भी युग के प्रारंभ में भगवान ऋषभदेव ने ब्राह्मी को ही प्रदान किया था, ब्राह्मी के नाम पर यह लिपि अनेक शताब्दियों के बाद भी आज तक 'ब्राह्मी लिपि' के नाम से ही विश्रुत है। यावन्मात्र लिपियाँ जो वर्तमान में उपलब्ध हैं उन सबका मूल आधार 'ब्राह्मी लिपि को माना जाता है। जैन आगम ग्रंथों में 'नमो बंभीए लिवीए' कहकर इसे आदर पूर्वक नमस्कार किया गया है।" भगवान ऋषभदेव को जब केवलज्ञान प्राप्त हुआ, तब उनके प्रथम प्रतिबोध से ही ब्राह्मी ने गृहत्याग कर श्रामणी-दीक्षा अंगीकार कर ली थी। इतना ही नहीं उनके द्वारा संस्थापित श्रमणी - संघ की प्रथम 'आर्या' बनने का सौभाग्य भी ब्राह्मी को ही प्राप्त हुआ था। इनके नेतृत्व में तीन लाख श्रमणियाँ तथा पाँच लाख चउपन हजार व्रतनिष्ठ 7. उदितोदिय कुलवंसा विसुद्धवंसा गुणेहि उववेया । । - वही, सूत्र 649, गा. 45 8. आवश्यक चूर्णि भाग 1, पृ. 156-211; आवश्यक निर्युक्ति (हरिभद्र) भाग 1 पृ. 100 9. भगवतीसूत्र, मंगलाचरण Jain Education International 103 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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