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________________ श्वेताम्बर-परम्परा की श्रमणियाँ (पंचम) जिनके गच्छ में कई लब्धिधारी विद्वान मुनि रत्न थे, उन्होंने संवत् 357-370 में अनेक नर-नारियों को दीक्षा प्रदान की।545 5.5.12 जैती एवं पुत्रवधु जिनदासी (संवत् 370-400) ___आप जाबालीपुर नगर में मोरख गोत्रीय या डिडू गोत्रीय पुष्करणा शाखा में जगाशाह नामके धनकुबेर श्रेष्ठी की भार्या थीं। आपकी प्रेरणा से श्रेष्ठी जगाशाह ने शत्रुजय की तीर्थ यात्रा का संघ निकाला था। पट्टावलीकार के अनुसार उस संघ में 700 साधु- साध्वियाँ और 20 हजार भावुक भक्त थे। इनके ठाकुरसी नाम का होनहार पुत्र-रत्न था, जंबूकुमार की तरह पिता ने ठाकुरसी का 16 वर्ष की उम्र में ही उसी नगर के बलाह गोत्रीय शाह चतरा की सुशील सुशिक्षित कन्या जिनदासी के साथ अत्यंत धूमधाम से विवाह कर दिया। लग्न को 6 मास भी पूर्ण नहीं हुए कि आचार्य देवगुप्तसूरि (पंचम) के सदुपदेश को श्रवण कर ठाकुरसी के हृदय में वैराग्य हिलोरे लेने लगा। ठाकुरसी का ही अनुगमन कर उसके पिता शाह जगा, माता जैती एवं पत्नी जिनदासी ने भी दीक्षा ली। ठाकुरसी का नाम अशोकचन्द रखा गया। ये उपकेशगच्छ के 30 वें आचार्य सिद्धसूरि (पंचम) के रूप में प्रसिद्ध हुए।546 5.5.13 फेफो श्रमणी (संवत् 400-24) आप उपकेशगच्छ के 31वें आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि (षष्टम) की मातेश्वरी थीं। और शंखपुर (मरूधर प्रान्त) में राव कानड़देव के राज्य में तप्तभट्ट गोत्री शाह धन्ना की गृहदेवी थीं। इनके 13 पुत्रों में भीमदेव पूर्वभव से संस्कारित आत्मा एवं वर्तमान में माता-पिता के सुसंस्कारों से पोषित अति ही भव्य कुमार था। शाह धन्ना और माता फेफोने भी पुत्र के साथ आचार्य सिद्धसूरि (पंचम) के चरणों में माघ शुक्ला 13 को दीक्षा अंगीकार की। भीमदेव आगे जाकर उपकेशगच्छ के 31वें आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि (षष्टम्) के नाम से महान प्रभावशाली आचार्य हुए।547 5.5.14 रूक्मणी (संवत् 480-520) ये खट्कूप (मरूधरदेश) नगर के धनाढ्य श्रेष्ठी करणा गोत्रीय शाह राजसी की गृहदेवी थीं। कहा जाता है, कि इनके घृत तेल के पुष्कल व्यापार के साथ-साथ एक हजार गायों का पालन पोषण एवं विस्तृत खेती होती थी। इन्होंने सम्मेदशिखर तक यात्रा संघ निकाला, यात्रा से आने के पश्चात् स्वधर्मी भाइयों को सोने की कंठी, चूड़ा तथा वस्त्रादि देकर सम्मानित किया। खट्कुंप में इन्होंने भ. महावीर का मंदिर भी बनवाया। इनके 13 पुत्र और 4 पुत्रियाँ थीं। इनमें धवल नाम के पुत्र को आचार्य कक्कसूरि (षष्टम) के पास भव्य महोत्सव पूर्वक दीक्षा प्रदान की, ये ही उपकेशगच्छ के 34वें आचार्य श्री देवगुप्तसूरि के रूप में (षष्टम) प्रतिष्ठित हुए। इनकी दीक्षा के पश्चात माता रूक्मणी ने और पिता शाह राजसी ने भी अपार ऐश्वर्य का त्याग कर कक्कसूरि (षष्टम) के चरण-कमलों में दीक्षा अंगीकार की।48 545. वही, भाग 1 खंड 2 पृ. 750 546. विशेष देखें -वही, पृ. 791-803 547. वही, पृ. 812-27 548. इनका विस्तृत परिचय देखें- वही, पृ. 878-894 475 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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