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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास साथ धारण करके भी महिलाएं अपने नर-जन्म को कृतार्थ करती थीं, पोचिकब्बे, लक्ष्मीमती, माचिकब्बे, शान्तलदेवी आदि इसी प्रकार संयम पथ पर आरूढ़ होने वाली महिला-श्रमणियाँ हैं।
4.6.36 लक्ष्मीमती (वि. संवत् 1179)
चंद्रगिरि की पार्श्वनाथ वस्ति के दक्षिण की ओर के शिलालेख पर ही लक्ष्मीमती के संन्यासविधि से शक संवत् 1044 में देहोत्सर्ग का उल्लेख है। ये दंडनायक गंगराज की धर्मपत्नी थी, तथा दान, गुण व शील में अग्रणी थी। मूलसंघ पुस्तकगच्छ देशीगण के शुभचन्द्राचार्य की शिष्या थीं। दंडनायक गंगराज ने अपनी साध्वी स्त्री की स्मृति में निषद्या निर्माण करवाई167
4.6.37 माचिकब्बे एवं शान्तलदेवी (वि. संवत् 1185)
चन्द्रगिरि की गन्धवारण बस्ती के प्रथम मण्डप के तृतीय स्तम्भ पर महान तपस्विनी सती साध्वी माचिकब्बे एवं पुत्री शान्तलदेवी की अमर कीर्ति गाथाएं उट्टङ्कि.त हैं। यह लेख तीन भागों में विभक्त है, कुल 40 पद्य हैं, उसमें प्रारम्भ के 19 पद्यों में द्वारावती के यादववंशीय पोयसल नरेश विनयादित्य व उनके उत्तराधिकारी 'एरेयग.' तथा उनके पुत्र और उत्तराधिकारी' विष्णुवर्द्धन' का वर्णन है। विष्णुवर्द्धन बड़ा प्रतापी नरेश हुआ, उसने अनेक माण्डलिक राजाओं को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया था। इसकी पटरानी शान्तलदेवी धर्मपरायण थी, प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव की वह शिष्या थी। शान्तलदेवी के पिता का नाम मारसिंगय्य और माता का नाम माचिकब्बे था। शान्तलदेवी ने बेल्गोल में आकर संन्यासविधि लेकर एक मास का अनशन व्रत किया और समाधिमरण को प्राप्त हई। सन 1121 में जब शान्तलदेवी का संलेखना मरण हुआ तो माता माचिकब्बे को भी संसार से विरक्ति हो गई। माचिकब्बे दण्डाधीश नागवर्म और उनकी भार्या चन्दिकब्बे के पुत्र प्रतापी बलदेव दण्डनायक और उनकी भार्या वाचिकब्बे की पुत्री थी। इन्होंने भी श्रवणबेल्गोल में अपने गुरू प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव वर्धमानदेव और रविचन्द्रदेव की उपस्थिति में संन्यास दीक्षा ग्रहण कर एक मास के अनशन के साथ संलेखना व्रत अंगीकार किया और समाधिमरण किया था। उक्त त्यागी मुनियों ने इनके तप, संयम एवं धर्मनिष्ठा की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। मध्यकालीन भारत की वीरपत्नी और वीरमाता माचिकब्बे एवं शान्तलदेवी ने तीर्थंकरकालीन उन श्रमणियों का आदर्श प्रस्तुत किया जो अंतिम समय में भोगों से विरक्त होकर संयम जीवन में प्रवेश करती थीं, और अंत में मासिकी संलेखना धारण कर आत्म-ज्योति को प्रगट कर लेती थीं। इन दोनों माता पुत्रियों का उत्कृष्ट त्याग युगों-युगों तक भारतीय नारियों के लिये पथ चिह्म बना रहेगा।
4.6.38 कण्नबे कन्ति (वि. सं. 12वीं शताब्दी)
श्रवणबेलगोल के गरगट्ट चन्द्रय्य के घर जिनमूर्ति के पादपीठ पर उत्कीर्ण लेख में इस महान साध्वी का उल्लेख है।० 67. अभिलेख-48 (128), जै. शि. सं., भाग 1 68. (क) अभिलेख- 53 (143), जै. शि. सं. भाग 1, (ख) डॉ. जैन ज्योतिप्रसाद, प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरूष और महिलाएं,
पृ. 141 70. 'श्रीमत् कणनबे कन्तियरू कलसतवादिय तीर्थद वसदिगे कोहर" अभिलेख 460 (485) जै. शि. सं., भाग 1
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