SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 519
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्वेताम्बर-परम्परा की श्रमणियाँ 5.4 अंचलगच्छ की श्रमणियाँ (संवत् 1146 से अद्यतन) चन्द्रकुल से निष्पन्न प्रवर्तमान गच्छों में प्राचीनता की दृष्टि से खरतर और तपागच्छ के बाद अंचलगच्छ का स्थान आता है। इस गच्छ के तीन नाम है-विधिपक्ष, अंचलगच्छ और अचलगच्छ। बृहद्गच्छीय आचार्य जयचन्द्र सूरि के शिष्य विजयचन्द्रगणि अपरनाम आर्यरक्षितसूरि द्वारा वि. सं. 1169 में विधिमार्ग की प्ररूपणा और उसके पालन करने से यह गच्छ अस्तित्व में आया। अंचलगच्छ नाम के संबंध में यह घटना प्रसिद्ध है, कि कुडी व्यवहारी नामक श्रावक ने चौलुक्य नरेश कुमारपाल की सभा में आर्यरक्षित सूरि को अपने उत्तरीय के एक छोर से भूमि का प्रमार्जन कर वंदन किया और कुमारपाल की जिज्ञासा पर हेमचन्द्राचार्य ने वंदन की उक्त विधि को शास्त्रोक्त बताया, तब कुमारपाल ने विधिपक्ष को 'अंचलगच्छ' नाम प्रदान किया। यह घटना संवत् 1213 की है। प्राचीन प्रशस्तियों, शिलालेखों-प्रतिमालेखों आदि से भी अंचलगच्छ नाम की ही पुष्टि होती है।490 इस गच्छ में जयसिंहसूरि, धर्मघोषसूरि, महेन्द्रसूरि, धर्मप्रभसूरि, महेन्द्रप्रभसूरि, जयशेखरसूरि, मेरूतुंगसूरि, जयकेशरीसूरि, ध ममूर्तिसूरि, कल्याणसागरसूरि आदि प्रभावक और विद्वान् जैनाचार्य तथा मुनिजन हो चुके हैं। जैन परम्परा में समय-समय पर उद्भुत अनेक गच्छ जहां विलुप्त हो गये, वहीं अंचलगच्छ आज भी विद्यमान है। जिसका श्रेय इसके क्रिया सम्पन्न मुनिराजों व साध्वियों को है। आज भी अंचलगच्छ में आचार्य श्री गौतमसागरसूरीश्वरजी के पट्टधर आचार्य श्री गुणसागरसूरिजी की आज्ञा में 239 साध्वियाँ विचरण कर रही हैं। यहाँ हम अतीत से वर्तमान तक की साध्वियों का प्रभावी व्यक्तित्व एवं कृतित्व प्रस्तुत कर रहे हैं। 5.4.1 महत्तरा समयश्रीजी (संवत् 1146) ___ अंचलगच्छ की प्रथम महत्तरा साध्वी जी के रूप में आपका गौरवपूर्ण स्थान है। भावसागर गुर्वावली में उल्लेख है कि आर्यरक्षितसूरि विचरण करते हुए विउणप बंदर में आये, वहाँ वंका शेठ के पुत्र कोडी व्यवहारी को प्रतिबोध देकर अपना श्रावक बनाया। उसकी 'सोमाई' नाम की पत्री थी. जो एक करोड य के स्वर्ण आभूषणों से हर समय लदी रहती थी, आचार्य श्री का उपदेश श्रवण कर उसने उन सबका त्याग कर अपनी 25 सखियों के साथ दीक्षा ग्रहण की। बाद में उसे 'महत्तरा' पद प्रदान किया गया।91 उल्लेख है, कि आर्यरक्षितसूरि के परिवार में 203 महत्तरा साध्वी, 82 प्रवर्तिनी साध्वी व 1130 साध्वी कुल 1315 साध्वियों में समयश्री 'प्रथम महत्तरा' साध्वी थी।492 5.4.2 जिनसुंदरी गणिनी (संवत् 1288) आप विधिपक्ष की अति विदुषी लब्धप्रतिष्ठ साध्वी थीं। आचार्य देवनाग ने संवत् 1288 में आपके लिये मुनि शीलभद्र से गोविन्दगणि के 'कर्मस्तव' पर टीका लिखाई थी। आपने भी संवत् 1313 चैत्र शुक्ला 8 रविवार के 490. (क) प्रयोजक-पार्श्व, 'अंचलगच्छ दिग्दर्शन, पृ. 49, मुंबई 1968, (ख) डॉ. शिवप्रसाद, अचलगच्छ का इतिहास, श्रमण' स्वर्ण जयंति अंक, अप्रेल-जून 1999, पृ. 112 पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी 491. अंचलगच्छ दिग्दर्शन, पृ. 48-50 492. वही, पृ. 281 457 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy