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________________ श्रमणियों से अनुगुम्फित है। महावीर युग में वर्तमान श्रमणी परम्परा की सूत्रधार आर्या चंदनबालाजी एक बृहत् श्रमणी संघ की संचालिका थी। धर्म की धुरा का संवहन करने में उसने गौतम आदि 11 गणधरों के समान ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसी प्रकार शान्ति की सूत्रधार मृगावती, तत्त्वशोधिका जयंति, अनुराग से विराग का दीप जलाने वाली देवानन्दा, अचल श्रद्धा की प्रतीक सुलसा, तपस्या के प्राञ्जल कोष की स्वामिनी काली आदि रानियों की यशोगाथाएँ भी इसमें वर्णित हैं। महावीरोत्तरकाल में जम्बूकुमार के साथ अपने अविचल प्रेम का निर्वहन करने वाली समुद्रश्री आदि आठ श्रेष्ठी कन्याएँ भोग योग्य युवावस्था में सुख सुविधाओं को ठुकराकर अद्वितीय अनुपम आदर्श उपस्थित करती हैं। तप-संयम की उत्कृष्ट आराधना कर भगवद् पद को प्राप्त करने वाली पुष्पचूला अपने ही बोध प्रदाता गुरू आचार्य अन्निकापुत्र की मार्गदृष्टा बनती है। अद्वितीय प्रतिभा की धनी, श्रुतसम्पन्ना यक्षा यक्षदत्ता आदि सात साध्वी भगिनियाँ आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ति जैसी महान हस्तियों को अपने ज्ञान निर्झर से सिंचित कर जिनशासन को अर्पित करती हैं। आर्या पोइणी श्रुतरक्षा एवं संघहित हेतु अपने विशाल साध्वी समुदाय के साथ कुमारगिरि पर आयोजित श्रमण सम्मेलन में उपस्थिति प्रदान करती है। रूद्रसोमा अपने पुत्र आर्यरक्षित को पूर्वो का अध्ययन करने के बहाने संयम पथ पर आरूढ़ करवाती है। ईश्वरी संकटकाल से प्रेरणा लेकर सम्पूर्ण परिवार में विरक्ति की भावनाएँ जागृत करती है। याकिनी महत्तरा जैन धर्म के कट्टर विद्वेषी विद्वान् हरिभद्र को अपनी व्यवहार कुशलता और अद्भुत प्रज्ञा से जैनधर्म में जोड़ती है। पाहिनी गुरू के वचनों को श्रवण कर पाँच वर्ष के नन्हें पुत्र को गुरू चरणों में समर्पित कर देती है, वही राजा कुमारपाल का प्रतिबोधक एवं कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र के नाम से ख्याति को प्राप्त हुआ। यह सम्पूर्ण विवरण कालक्रम से उक्त अध्याय में प्रस्तुत किया गया है । इसके अतिरिक्त गण, कुल शाखा से अनुबद्ध वीर निर्वाण 527 से 927 तक की उन श्रमणियों का भी उल्लेख है जो विशेषतः मथुरा के मंदिरों, वहाँ की मूर्तियों की प्रेरणादात्री रही हैं। ऐसी कुल 109 श्रमणियों का विशिष्ट अवदान तृतीय अध्याय में दिया गया है । चतुर्थ अध्याय : दिगंबर-परम्परा चतुर्थ अध्याय दिगम्बर-परम्परा से सम्बन्धित है। इसमें श्वेताम्बर, दिगम्बर परम्परा भेद, दिगम्बर- परम्परा का आदिकाल, दक्षिण भारत में जैन श्रमणियों का अस्तित्व यापनीय सम्प्रदाय एवं भट्टारक परम्परा की श्रमणियों का जैन संघ में विशिष्ट स्थान दर्शाते हुए विक्रम की आठवीं से इक्कीसवीं सदी तक की 319 श्रमणियों के व्यक्तित्व की जानकारी दी गई है। इसमें संवत् 757 से पन्द्रहवीं सदी तक कर्नाटक प्रान्त में हुई, उन अमरत्व की पूज्य प्रतिमाओं की जानकारी भी है, जिन्होंने श्रवणबेल्गोला के चन्द्रगिरि पर्वत पर महान संलेखना व्रत अंगीकार कर अपने आत्मिक उत्कर्ष का परिचय दिया था, तथा आठवीं से ग्यारहवीं सदी तक हुई उन कुरत्तिगल भट्टारिकाओं का भी इतिहास है, जिन्होंने स्वतन्त्र रूप से अपने संघ का नेतृत्त्व किया था। इन श्रमणियों ने बड़े बड़े विश्वविद्यालयों का निर्माण करवाकर वहाँ उच्चकोटि के जैन धर्म व दर्शन के विद्वान् पंडित तैयार किये, जो देश के विभिन्न भागों में जाकर धर्म का प्रचार करते थे। इसी प्रकार विक्रमी संवत् ग्यारहवीं सदी से अठारहवीं सदी तक अनेक श्रमणियाँ हुई जिनके सक्रिय धार्मिक सहयोग एवं प्रेरणा से देवगढ़ (उत्तरप्रदेश) की मूर्तियाँ मन्दिर एवं निर्मित हुए। वहाँ के एक मानस्तम्भ पर तो आर्यिका का उपदेश भी दो पंक्तियों में अंकित है। (xxxi) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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