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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास किया, जैसा कि आगमों में उल्लेख है, कालि आदि रानियों ने साठ भक्त अनशन किया, उसी प्रकार नांजी ने भी 26 दिन के तिविहार संलेखना एवं 4 दिन चौविहार अनशन द्वारा लाडनूं में पंडितमरण प्राप्त किया।
7.9.22 श्री चांदाजी 'सरदारशहर' (सं. 1966-2005) 7/122
चांदाजी का जन्म संवत् 1938 में श्री दुलीचंदजी चंडालिया के यहां हुआ, आप श्री नथमलजी नवलखा की सहधर्मिणी थी। पतिवियोग के बाद नौ वर्षीया कन्या श्री संतोकाजी के साथ लाडनूं में भाद्रपद शुक्ला 10 के दिन दीक्षा अंगीकार की। साध्वीश्री हृदय से सरल व साधुचर्या में जागरूक थीं। सेवा के क्षेत्र में उनका विशिष्ट स्थान रहा। तप के क्षेत्र में भी लडीबद्ध सत्तरह का तप किया. फिर मासखमण किया। जिसमें उपवास 3358, बेले 203, तेले 82, चोले 12, पचोले 8, छह 2, सात 4, नौ 3, ग्यारह 3, तेरह 2 किये। सं. 1983 से सेलड़ी की वस्तु (जिसमें गुड़ चीनी मिली हुई हो) का संपूर्ण त्याग कर दिया। अंत समय 12 दिन के संलेखना संथारे के साथ राजलदेसर में स्वर्गवासिनी हो गईं। 7.10 अष्टमाचार्य श्री कालूगणी के शासनकाल की प्रमुख श्रमणियाँ 12 (सं. 1966-93)
आचार्य कालूगणी सफल अनुशास्ता, निस्पृह कर्मयोगी, शांतिप्रिय और श्रमनिष्ठ आचार्य थे, आचार्य मघवागणी से दीक्षित होकर डालगणी के उत्तराधिकारी बने। उन्होंने 11 वर्ष की उम्र में संयमी जीवन में प्रवेश किया, 22 वर्ष तक सामान्य मुनि पर्याय में रहे और श्री डालगणी के बाद वि. सं. 1966 से 1993 तक 27 वर्ष आचार्य पद का दायित्व सफलतापूर्वक निभाया। सं. 1993 भाद्रपद शुक्ला षष्ठी के दिन गंगापुर (राज.) में स्वर्गस्थ हुए। कालूगणी के शासनकाल में संघ की अभूतपूर्व प्रगति हुई। साधना, शिक्षा, कला, साहित्य आदि विविध क्षेत्रों में नये कीर्तिमान स्थापित हुए। श्रमण-श्रमणी परिवार की भी अभूतपूर्व वृद्धि हुई, जहां आचार्य डालगणी के समय 68 साधु व 231 साध्वियाँ थी, वहाँ आचार्य श्री कालूगणी के शासनकाल में 410 दीक्षाएँ हुईं, जिनमें 155 श्रमण व 255 श्रमणियाँ बनी। जहां अन्य आचार्यों के काल में प्रायः विधवा या विवाहित महिलाएँ दीक्षित होती थीं, वहीं आचार्य कालूगणी के समय बालवय में दीक्षा अंगीकार करने वाली 85 श्रमणियाँ हुई। इनमें लघुसिंहनिष्क्रीड़ित तप की संपूर्ण आराधिका एवं बारहमासी तप (आछ के आगार से) करने वाली उग्र तपः साधिकाएँ भी हैं, और 71 दिन का संलेखना तप करने वाली दृढ़ मनोबली साहसी श्रमणियाँ भी हैं, साथ ही सेवाभाविनी, शास्त्रविज्ञा, संस्कृत पाठिकाएँ, धर्मप्रचारिकाएँ, अग्रगण्या श्रमणियाँ भी हैं, इन श्रमणियों ने आधुनिक जगत को अपनी अध्यात्म-ऊर्जा व कार्यक्षमता का परिचय देकर श्रमणी-संघ को गौरवान्वित किया।
7.10.1 श्री छगनांजी 'बोरावड़' (सं. 1966-2025) 8/10
आप श्री सिरेमलजी बरमेचा की सुपुत्री थीं। 14 वर्ष की वय में सगाई सम्बन्ध को तोड़कर आषाढ़ शु. 10 के दिन आचार्य कालूगणी द्वारा सरदारशहर में दीक्षित हुईं। अशिक्षित होती हुई भी लगन एवं पुरुषार्थ के साथ आपने लगभग 15 हजार पद्य, चार आगम, रामचरित्र आदि 11 आख्यान, 25 स्तोक आदि कंठस्थ किये। आप सेवाभाविनी शासन समर्पित एवं तत्त्वज्ञा साध्वी थीं, संवत् 1994 से अग्रणी के रूप में मारवाड़. मेवाड़, हरियाणा
12. शासन-समुद्र, भाग-15-16.
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