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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास वाली देवानंदा ने श्रमण संस्कृति को जो गौरव प्रदान किया उसके लिये श्रमण-संस्कृति सदा उसकी चिरऋणी रहेगी। 3.2.3 प्रियदर्शना (वी. नि. 28 वर्ष पूर्व )
श्वेताम्बर मान्यतानुसार प्रियदर्शना अपर नाम 'अनवद्या" भगवान महावीर की पुत्री और यशोदा की अंगजात कन्या थी। कई कलाओं में निपुण यौवनारूढ़ होने पर भगवान महावीर की बहन सुदर्शना के पुत्र क्षत्रिय राजकुमार जमालि से इनका विवाह हुआ।
तीर्थंकर महावीर जब केवलिचर्या के द्वितीय वर्ष में क्षत्रियकुण्ड पधारे तो पांचसौ क्षत्रिय राजकुमारों के साथ जमालि ने और एक हजार स्त्रियों के साथ प्रियदर्शना ने भगवान के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। भगवान महावीर की केवलीचर्या के चौदहवे वर्ष में जमालि भगवान के 'कडेमाणे कडे' सिद्धान्त को अमान्य करके भगवान से अलग होकर विचरने लगे, तब आर्या प्रियदर्शना ने भी उसके नवीन मत को स्वीकार कर लिया था, वह भी 1000 आर्याओं के साथ चन्दना आर्या के श्रमणी - संघ से पृथक् होकर विचरण करने लगी थी। किंतु बाद में श्रावस्ती के ढंक श्रावक, जो अर्हत्प्रणीत धर्म के प्रति श्रद्धानिष्ठ थे, उनके समझाने से वह पुनः भगवान के धर्म में श्रद्धाशील होकर विचरने लगी।
अवदान : प्रियदर्शना के प्रसंग से यह ज्ञात होता है कि श्रमण संघ से पृथक् हुए श्रमणों का प्रभाव श्रमणी - संघ पर भी पड़ता ही है। भगवान महावीर के साथ मतभेद होने पर जमालि और प्रियदर्शना दोनों निर्ग्रन्थ संघ से अलग हो गये थे। किंतु प्रियदर्शना ने 'सत्यं मदीयं' को प्रमुखता दी और जब सत्य उसके समक्ष प्रगट हो गया तो उसे स्वीकार करने में तथा जमालि का साथ छोड़ने में उसने जरा भी संकोच नहीं किया। इस प्रकार उसकी अनाग्रहीवृत्ति ने उस समय जैनधर्म की जो महिमा बढ़ाई वह अपूर्व थी ।
3.2.4 जयन्ती (वी. नि. 27 वर्ष पूर्व)
जैन साहित्य में तत्वशोधिका जयंति का नाम बहुत आदर के साथ लिया जाता है। जयन्ती वत्स देश की राजधानी कौशाम्बी के सहस्रानीक राजा की पुत्री, शतानीक राजा की भगिनी महासती मृगावती की ननद एवं राजा उदयन की बुआ थी। वह श्रमणोपासिका थी तथा अर्हत् धर्म पर अपार श्रद्धा रखती थी, प्रथम शय्यातर के रूप में भी वह प्रसिद्ध थी।
तीर्थंकर प्रभु महावीर कैवल्य प्राप्ति के तृतीय वर्ष में विहार करते हुए कौशाम्बी के " चन्द्रावतरण" चैत्य में पधारे। यह शुभ सन्देश सुनकर जयन्ती, राजा उदयन तथा मृगावती के साथ प्रभु के समवसरण में देशना सुनने हेतु गई, देशना के पश्चात् जयन्ती ने अर्हत्धर्म के तत्व को विस्तार से समझने के लिए आत्मा के गुरूत्व, लघुत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व आदि अनेक तत्व - प्रधान एवं जिज्ञासा - प्रधान प्रश्न भगवान से पूछे। उसके गूढ़ दार्शनिक प्रश्नों को सुनकर उपस्थित सभा चकित रह गई । प्रभु महावीर से प्रश्नों का समुचित समाधान पाकर एवं जीवाजीव विभक्ति को जानकर जयन्ती भगवान के चरणों में दीक्षित हो गई । "
7. अणुज्जंगी नाम, बीयं नाम पियदंसणा उत्त. नेमिवृ. पृ. 46
8. (क) आव. नि., भा. 1 पृ. 208-9 (ख) आव. चू. भा. 1 पृ. 245, 416 (ग) भगवती 9 / 33 (घ) त्रिषष्टि. 10/8/28-29 (ड.) प्राप्रोने, 1 पृ. 456
9. भगवतीसूत्र, शतक 12 उद्देशक 2; प्राप्रोने 1 पृ. 276
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