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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास उम्र में श्री लाडूजी के मुखारविन्द से चैत्र शु. 3 सं. 1957 में दीक्षा अंगीकार की। आप श्री भूलाजी की शिष्या थीं। आप भद्र प्रकृति की थीं, आपकी तीन शिष्याएँ हुईं- श्री धापूजी, श्री सूडाजी, श्री सुमतिकुंवरजी । 6
6.3.1.31 प्रवर्तिनी श्री रतनकुंवरजी (सं. 1957 स्वर्गस्थ )
आपका जन्म संवत् 1949 मोगरा (जोधपुर) ग्राम में पिता गणेशीरामजी राजपूत और माता रम्भाबाई के यहां हुआ। आठ वर्ष की उम्र में संवत् 1957 को जावरा में श्री सिरेकुंवरजी से दीक्षा ग्रहण की। आपने संस्कृत, प्राकृत, ऊर्दू का उच्च शिक्षण प्राप्त किया। आपकी वाणी को श्रवण कर सेमलिया के महाराज श्री चतरसेनजी ने दशहरे के दिन होने वाली भैंसे की बलि को सदा के लिये बंद करवा दिया। देलवाड़ा, तनोदिया, अचलावदा, ऊबरवाड़ा, पीपलखूटा, भींडर, निंबोज, नामली तथा सैलाना के नरेशों ने मांस-मदिरा का त्याग कर दिया। आपने परदेशी राजा, शांतिनाथ चरित्र, रत्नचूड़ मणिचूड़ चरित्र, सती तिलोकसुंदरी, चंद्रलेखा चरित्र, कुसुमश्री चरित्र आदि चरित्र भी रचे हैं। जो जैन सुबोधरत्नमाला भाग 1 से 4 प्रकाशित हुए हैं। कविकुलभूषण पूज्यपाद तिलोकऋषि जी द्वारा लिखित भरतक्षेत्र का नक्शा, लेश्यावृक्ष, निर्जरा के भेदों का वृक्ष आपके द्वारा लिखे जाने पर ही प्रसिद्धि में आया है, प्रतापगढ़ में संवत् 1989 पोष कृ. 5 को मालवा प्रान्तीय ऋषि संप्रदायी सती सम्मेलन में आपको ‘प्रवर्तिनी' पद प्रदान किया गया था। नागदा जंक्शन में 'श्री रत्न जैन पुस्तकालय' की स्थापना आपके सदुपदेश से हुई। श्री उमरावकंवरजी, वल्लभकंवरजी, श्रीमतीजी, राजीमतीजी, सोहनकंवरजी, श्री चतरकंवरजी, विमलकंवरजी, पानकुंवरजी, सूरजकंवरजी, कुसुमकंवरजी ये आपकी दस शिष्याएँ थीं। आपके स्वर्गवास की तिथि अज्ञात है।
6.3.1.32 प्रवर्तिनी श्री राजकुंवरजी (सं. 1958 - 96 )
आप रतलाम निवासी श्री कस्तूरचंदजी मुणोत की पुत्री थीं। आठ वर्ष की उम्र में श्री भूराजी महाराज के पास वैशाख शु. 6 सं. 1958 को आप दीक्षित हुईं। बाल्यावस्था में ही आपने आठ शास्त्र कंठस्थ किये। संस्कृत प्राकृत, हिन्दी, ऊर्दू, फारसी पर आपका अच्छा प्रभुत्व था। आपके कंठ में माधुर्य था, प्रवचन रसपूर्ण, मधुर गंभीर और प्रभावशाली होता था। आपके प्रवचनों को सुनकर अनेक जैनेतर भाइयों ने मांस, मद्य का सदा के लिये परित्याग कर दिया, कई तो पक्के जैन श्रद्धालु बन गये । बम्बई में प्रथम बार चातुर्मास करके आपने ही सतियों के लिये बंबई का द्वार खुला किया था। आपका संयमी जीवन अत्यन्त निर्मल रहा । गुणग्राहिता, सरलता, शांति और उदारता के कारण आप सबकी श्रद्धा पात्र थीं, नम्रता इतनी थी कि छोटे से छोटे संत के साथ भी धर्मचर्चा और भद्र व्यवहार करती थीं। आपने जैनधर्म के प्रचार में महत्वपूर्ण योग प्रदान किया है। फाल्गुन शु. 4 सं. 1996 के दिन संथारा के साथ आपने आयुष्य पूर्ण किया। आपकी 15 शिष्याएँ हुई हैं- श्री सुगनकुंवरजी (सं. 1970), श्री चन्द्रकुंवर जी (सं. 1973), श्री जसकुंवरजी (सं. 1974) श्री शांतिकुंवरजी, श्री सिरेकुंवरजी (सं. 1979-94), श्री सूरजकुंवरजी (सं. 1993 ), श्री विनयकुंवरजी (सं. 1981), श्री बदामकुंवरजी (सं. 1983) श्री
56. ऋ. सं. इ., पृ. 324
57. ऋ. सं. इ., पृ. 367
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