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दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ प्राप्ति की आठ कथाएँ हैं और प्रसंगवश अनेक अवान्तर कथाएँ भी यथास्थान दी गई हैं। ग्रंथ के अंत में उन्होंने जो अपनी गुरू परंपरा दी है उसमें मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय सरस्वती गच्छ में भट्टारक पद्मनंदी के शिष्य ज्ञानभूषण की शिष्या आर्या चन्द्रमती, विमलमती और रत्नमती। आर्या रत्नमती ने यह रास विमलमती की प्रेरणा से रचा है। उक्त रचना की हस्तलिखित प्रति एलक पन्नालाल दिगम्बर जैन सरस्वती भवन, झालरा (पाटन) में सुरक्षित है।'
4.8.24 आर्यिका देवश्री (वि. संवत् 1568)
संवत् 1568 के फाल्गुन मास शुक्लपक्ष की दसमी तिथि गुरूवार के दिन गिरिपुर में श्री आदिनाथ के चैत्यालय में मूलसंघीय भट्टारक श्री ज्ञानभूषण के शिष्य भट्टारक विजयकीर्ति की भगिनी आर्यिका देवश्री के लिये 'पद्मनंदी पंचविंशति' की प्रति श्री संघ ने लिखवाई। यह उल्लेख बड़ोदा, दा. मा. पृ. 34 पर उल्लिखित है। यह बलात्कार गण ईडर शाखा का लेख है। 38
4.8.25 आर्या विनयश्री (वि. संवत् 1582)
आर्या विनयश्री आर्या विमलश्री की शिष्या व भट्टारक लक्ष्मीचन्द द्वारा दीक्षित थी। इनके विषय में उल्लेख है, कि इन्होंने 'महाभिषेक भाष्य' स्वयं लिखकर मूलसंघ के भट्टारक श्री मल्लिभूषण देव के शिष्य भट्टारक श्री लक्ष्मीचंद्र देव के शिष्य वर ब्रह्म श्री ज्ञान सागर को पढ़ने के लिये दिया। ब्रह्म नेमिदत्त ने आर्या विनयश्री का अपने ग्रंथ में आदर पूर्वक उल्लेख किया है।
उक्त टीका उन्होंने संवत् 1582 के चैत्र मास शुक्लपक्ष की पंचमी तिथी रविवार को भगवान ऋषभदेव के चैत्यालय में लिखी। यह लेख 'षट्प्राभृतादि संग्रह' प्रस्तावना पृ. 7 पर दिया है। साध्वी श्री की विद्वत्ता एवं पाण्डित्य का यह अनूठा उदाहरण है। 4.8.26 आर्या राजश्री (वि. संवत् 1584)
आर्या राजश्री के विषय में इतना ही उल्लेख मिलता है कि ये पुरवाल वंश में समुत्पन्न नारायण सिंह की बहन एवं यशसेन की शिष्या थी। इनके पुत्र पंडित जिनदास काष्ठासंघ के माथुरान्वय और पुष्करगण के भट्टारक कमलकीर्ति कुमुदचन्द्र और भट्टारक यशसेन के अन्वय में हुए थे। वि. सं. 1584 में इनके आदेश से कवि बीरू ने देहली के मुगल बादशाह बाबर के राज्यकाल में रोहितासपुर के पार्श्वनाथ मन्दिर में बृहत् सिद्ध चक्र पूजा' ग्रन्थ को रचना की थी। उक्त ग्रन्थ की प्रशस्ति में आर्या राजश्री की 'संयमनिलया' कहकर स्तुति की गई है। 40
पुत्र को दीक्षा देकर स्वयं जैन श्रमणी बनने वाली ऐसी अनेकों महिलाएँ जैनधर्म में हुई हैं। इन श्रमणियों ने शासन प्रभावना के जो कार्य किये उससे समूचा चतुर्विध संघ लाभान्वित हुआ है। 137. शास्त्री परमानन्द, दृष्टव्य, वही, पृ. 481 138. डॉ. वि. जोहरापुरकर, भट्टारक संप्रदाय, पृ. 144, लेखांक 365 139. वही, पृ. 175, लेखांक 470 140. तच्छिक्षणीह जाता सच्छील तरंगिणी महाव्रतिनी। राजश्रीरिति नाम्नी संयमनिलया विराजते जगति।।4।।
-पंडित जुगलकिशोर, जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह, भाग 1, पृ. 222
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