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________________ 5.6.3 प्रवर्तिनी हेमश्री (संवत् 1640 ) संवत् 1640 आसोज शु. 3 रविवार को आगमगच्छ धंधुकपक्ष में सौभाग्यसुंदरसूरि की परंपरा के भट्टारक श्री धर्मरत्नसूरि ने तपागच्छीय कुशलसंयमसूरि द्वारा संवत् 1555 माघ शुक्ला 5 में रचित 'हरिबल नो रास' की प्रतिलिपि की। उसमें प्रवर्तिनी हेमश्री की शिष्या महिमश्री, हर्षश्री की शिष्या 'लाला' का उल्लेख है, उसके पठनार्थ उक्त रास लिखकर दिया। इसकी प्रति वीरविजय उपाश्रय अमदाबाद में है। 565 5.6.4 साध्वी महिमश्री (संवत् 1648 ) आप आगमगच्छ के लघुशाखा आचार्य सौभाग्यसुंदर की शिष्या थी। आपके लिये पं. जयसुंदरजी ने वि. संवत् 1648 आसोज शु. 3 को देकापुर में ग्रंथ लिखाया था 5.7 पार्श्वचन्द्रगच्छ की श्रमणियाँ (वि. संवत् 1564 से अद्यतन ) जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास पार्श्वचन्द्रगच्छ नागोरी बृहत्तपागच्छ से उद्भुत एक स्वतंत्रगच्छ हैं। शताधिक ग्रंथों के कर्त्ता महाप्रभावशाली श्री पार्श्वचंद्रसूरि इस गच्छ के संस्थापक आद्य आचार्य थे। संवत् 1564 में साधु- संस्था में व्याप्त शिथिलाचार का उन्मूलन करने के लिये वे अपने गुरु श्री साधुरत्नसूरि की आज्ञा से संवेग मार्ग में प्रस्थित हुए थे, उनके पश्चात् यह गच्छ ‘पार्श्वचंद्रगच्छ नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ। गच्छ की स्थापना के समय अनेक साध्वियों ने भी क्रियोद्धार में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। उस समय इस गच्छ में साध्वियों की भी विशद संख्या थी, किंतु शनैः-शनैः साध्वी संघ विलुप्त प्रायः हो गया, उसे पुनर्जीवित करने के लिए वि. संवत् 1947 में श्री शिवश्रीजी, ज्ञानश्रीजी व हेमश्रीजी को गणिवर श्री कुशलचन्द्रजी महाराज ने 'जामनगर' में दीक्षा प्रदान की थी, ये तीनों 'कच्छ की काशी' के रूप में विख्यात 'कोडाय' ग्राम की रहने वाली थीं। 567 इसके अतिरिक्त इनसे संबंधित अन्य कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती, तथापि आज आप तीनों से ही इस गच्छ का विस्तार हुआ है, अनेक तेजस्विनी, प्रज्ञासम्पन्न साध्वियों से यह गच्छ गरिमामयी बना है। 5.7.1 श्री लब्धिश्रीजी ( संवत् 1948-94 ) संवत् 1924 में कच्छ के डोणगाँव वासी देशरभाई के यहाँ खीमइबाई की कुक्षि से इनका जन्म हुआ । विवाह के कुछ समय पश्चात् वैधव्य से वैराग्य की भावना जागृत हुई, संवत् 2047 कोडाय गाँव में दीक्षित होकर श्री शिवश्रीजी की प्रथम शिष्या बनीं। ज्ञान की ओजस्विता तप की तेजस्विता और व्यक्तित्व की वत्सलता से ये शीघ्र ही संघ में विख्यात हो गईं। 46 वर्ष के सुदीर्घ संयम के पश्चात् लाछुमा गाँव में स्वर्गवासिनी हुईं। श्री कनक श्रीजी, पूनम श्रीजी, माणेक श्रीजी, धर्मश्रीजी, कुसुमश्रीजी, जगतश्रीजी, कीर्तिश्रीजी, मंगलश्रीजी, मित्रश्रीजी, कंचनश्रीजी, रमणीकश्रीजी आदि आपकी विदुषी शिष्या - प्रशिष्याओं का विशाल परिवार है 1568 565. जै. गु. क. भाग 1, पृ. 209, 566 श्री प्रशस्ति संग्रह, पृ. 133 567. मुनि श्री भुवनचंद्रजी, संघ- सौरभ, पृ. 17 श्री पार्श्वचंद्रगच्छ जैन संघ, देशलपुर, कच्छ (गु.) 2005 ई. 568. (क) वही, पृ. 57 (ख) 'श्रमणीरत्नों, पृ. 818 Jain Education International 480 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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