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________________ सवंत् 1564 में माना जाता है, किन्तु इस शाखा के साधु-साध्वी आज भी अच्छी संख्या में विद्यमान है। सन् 2005 में इन श्रमणियों की संख्या 58 थी। कुल मिलाकर सभी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा की श्रमणियाँ वर्तमान में 6322 है। श्वेताम्बर-परम्परा में गणिनी प्रवर्तिनी महत्तरा आदि पदों को प्राप्त हुई अनेक विदुषी श्रमणियाँ हैं। संवत् 1477 में गुणसमृद्धिमहत्तरा ने 'अंजणासुंदरीचरियं' 503 पद्यों में रचकर अपने वैदुष्य का परिचय दिया था, ये प्राकृतभाषा की एकमात्र लेखिका है। विक्रम की तेरहवीं सदी में महत्तरा पद्मसिरि अलौकिक व्यक्तित्त्व की धनी साध्वी हुई, गूढ़ से गूढ़ तत्त्वज्ञान को सुबोध सुमधुर शैली में व्याख्यायित करने की उसकी कला एवं वैराग्य रंग से रंजित सदुपदेशों से आकृष्ट होकर अल्प समय में 700 नारियाँ दीक्षित हुई। मातर तीर्थ में प्रतिष्ठित उनकी प्रतिमा का चित्र अध्याय एक में दिया गया है। इसी प्रकार पन्द्रहवीं सदी में धर्मलक्ष्मी महत्तरा को ज्ञानसागरसूरि ने विमलचारित्र में 'स्वर्णलक्षजननी' और 'सरस्वती' कहकर स्तुति की है। बीसवीं सदी में खरतरगच्छीय श्री उद्योतश्री जी ने विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने के लिए श्री सुखसागर जी महाराज के साथ क्रियोद्धार में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। प्रवर्तिनी पुण्यश्री जी के वैराग्य रस से ओतप्रोत उपदेशों से 116 मुमुक्षु आत्माएँ दीक्षित हुईं। प्रवर्तिनी शिवश्री जी, प्रेमश्री जी, ज्ञानश्री जी, वल्लभश्री जी ने संघमें विशिष्ट स्थान प्राप्त किया था। जैन कोकिला परम समाधिवंत प्रवर्तिनी विचक्षणश्री जी, महनीय गुणों से सुशोभित श्री मनोहरश्री जी बहुआयामी प्रतिभा की धनी श्री सज्जनश्री जी, जैन द्रव्यानुयोग की विशिष्ट अध्येत्री, अनेक संस्थाओं की प्रेरिका मणिप्रभाश्री जी आदि खरतरगच्छ की 551 साध्वियों का विशिष्ट परिचय एवं योगदान के विभिन्न पहलु पंचम अध्याय में वर्णित है। तपागच्छ में प्रवर्तिनी शिवश्री जी, तिलकश्री जी, तीर्थश्री जी, पुष्पाश्री जी, रेवतीश्री जी, राजेन्द्र श्री जी, मृगेन्द्रश्री जी, निरंजनाश्री जी, मलयाश्री जी आदि विशाल श्रमणी संघ की संवाहिका महाश्रमणियाँ हुईं। विशिष्ट तपाराधना के साथ वर्धमान तप की 100 ओली पूर्ण करने वाली श्रमणियों में श्री तीर्थश्री जी, श्री धर्मोदयाश्री जी, श्री सुशीलाश्री जी, श्री अरूजाश्री जी, श्री निरूपमाश्री जी, श्री रेवतीश्री जी, श्री रोहिताश्री जी, श्री कल्पबोधश्री जी, श्री प्रियधर्माश्री जी, श्री धर्मविद्याश्री जी, श्री धर्मयशाश्री जी, श्री इन्द्रियदमा श्री जी, श्री हर्षितवदनाश्री जी, श्री जितेन्द्र श्री जी, श्री महायशाश्री जी आदि संख्याबद्ध श्रमणियाँ हैं। श्री मोक्षज्ञाश्री जी, श्री चिद्वर्षाश्री जी आदि कुछ साध्वियाँ तो तप की जीती जागती प्रतिमा ही नजर आती हैं। श्री रंजनाश्री जी महान शासन प्रभाविका साध्वी हैं, इन्होंने सम्मेदशिखर जैसे विशाल तीर्थ का जीर्णोद्धार कर अपना नाम अमर कर दिया, तीर्थ स्थान पर इनकी प्रतिमा भी स्थापित की गई हैं। साहित्यिक क्षेत्र में अपना प्रशंसनीय योगदान देने वाली सूर्य शिशु श्री मयणाश्री जी एवं इनकी तीन शिष्याएँ विशुद्ध प्रज्ञा सम्पन्न शतावधानी श्रमणियाँ हैं। इसी प्रकार मासक्षमण आराधिका 27 शिष्याओं की गुरूमाता श्री त्रिलोचनाश्री जी, आशु कवयित्री प्रवर्तिनी श्री लक्ष्मीश्री जी, प्रकृष्ट तपस्विनी श्री देवेन्द्रश्री जी, संस्कृत प्राकृत काव्य न्याय व्याकरण आदि की ज्ञाता विदुषी निरंजनाश्री जी साहस व संकल्प की धनी प्रवर्तिनी रोहिणाश्री जी, महान धर्म प्रभाविका प्रवर्तिनी श्री बसन्तप्रभाश्री जी, श्री सौभाग्यश्री जी, प्रखरबुद्धि सम्पन्ना शतावधानी, डॉ. श्री निर्मलाश्री जी आदि तपागच्छ की महान विदुषी श्रमणियाँ हैं। तपागच्छ की ही प्रवर्तिनी देवश्री जी पंजाब की धरती पर दीक्षित होने वाली सर्वप्रथम श्रमणी एवं विशाल गच्छ की अधिनायिका थीं। पाकिस्तान से भारत आने वाली जैन समाज पर इनका उपकार चिरस्मरणीय है। महत्तरा श्री मृगावतीश्री जी अपनी विचक्षणता विदग्धता, तेजस्विता, नवयुग निर्माण की (xxxiii) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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